महाभारत आदि पर्व अध्याय 220 श्लोक 56-73

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विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्‍याय: आदि पर्व (हरणाहरण पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 56-73 का हिन्दी अनुवाद

जैसे नदियों के जल का महान् प्रवाह समुद्र में मिलता है, उसी प्रकार वह महान् धन और रत्नों का भारी प्रवाह, जिसमें वस्त्र और कम्बल फेन के समान जान पड़ते थे, बडे़-बडे़ हाथी महान् ग्राहों का भ्रम उत्पन्न करते थे और जहाँ ध्वजा-पताकाएँ सेवार का काम कर रही थीं, पाण्डवरूपी महासागर में जा मिला । यद्यपि पाण्डव समुद्र पहले से ही परिपूर्ण था तथापि इस महान् धनप्रवाह ने उसे और भी पूर्णतर बना दिया। यही कारण था कि वह पाण्डव महासागर शत्रुओं के लिये शोकदायक प्रतीत होने लगा। धर्मराज युधिष्ठिर ने यह सारा धन ग्रहण किया और वृष्णि और अन्धक वंश के उन सभी महारथियों का भलीभाँति आदर सत्कार किया। जैसे पुण्यात्मा मनुष्य देवलोक में सुख भोगते हैं, उसी प्रकार कुरू, वृष्णि और अन्धक वंश के श्रेष्ठ महात्मा पुरूष एकत्र होकर इच्छानुसार विहार करने लगे। वे कौरव और वृष्णिवंश के वीर जहाँ-तहाँ वीणा की उत्तम ध्वनि के साथ गाते-बजाते और संगीत का आनन्द लेते हुए यथावसर अपनी-अपनी रूचि के अनुसार विहार करने लगे। इस प्रकार के उत्तम पराक्रमी यदुवंशी बहुत दिनों तक इन्द्रप्रस्थ में विहार करते हुए कौरवों से सम्मानित हो फिर द्वारका चले गये। वृष्णि और अन्धक वंश के महारथी कुरूप्रवर पाण्डवों के दिये हुए उज्जवल रत्नों की भेंट ले बलराम जी को आगे करके चले गये। जनमेजय ! परंतु भगवान् वासुदेव महात्मा अर्जुन के साथ रमणीय इन्द्रप्रस्थ में ही ठहर गये। महायशस्वी श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ शिकार खेलते और जंगली वराहों तथा हिंस्र पशुओं का वध करते हुए यमुना जी के तट पर विचरते थे। इस प्रकार वे किरीटधारी अर्जुन के साथ विहार करते थ। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् श्रीकृष्ण की प्यारी बहिन सुभद्रा ने यशस्वी सौभद्र को जन्म दिया; ठीक, वैसे ही, जैसे शची ने जयन्त को उत्पन्न किया था। सुभद्रा ने वीरवर नरश्रेष्ठ अभिमन्यु को उत्पन्न किया, जिसकी बड़ी-बड़ी बाँहें, विशाल वक्षःस्थल और बैलों के समान विशाल नेत्र थे। वह शत्रुओं का दमन करने वाला था। वह अभि (निर्भय) एवं मन्युमान् (क्रुद्ध होकर लड़ने वाला) था, इसीलिये पुरूषोत्तम अर्जुन कुमार को ‘अभिमन्यु’ कहते हैं।
जैसे यज्ञ में मन्थन करने पर शमी के गर्भ से उत्पन्न अश्वत्थामा से अग्नि प्रकट होती है, उसी प्रकार अर्जुन के द्वारा सुभद्रा के गर्भ से उस अतिरथी वीर का प्रादुर्भाव हुआ था। भारत ! उसके जन्म लेने पर महातेजस्वी कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को दस हजार गौएँ तथा बहुत सी स्वर्ण मुद्राएँ दान में दीं। जैसे समस्त पितरों और प्रजाओं को चन्द्रमा प्रिय लगते हैं, उसी प्रकार अभिमन्यु बचपन से ही भगवान् श्रीकृष्ण का अत्यन्त प्रिय हो गया था। श्रीकृष्ण ने जन्म से ही उसके लालन-पालन की सुन्दर व्यवस्थाएँ की थीं। बालक अभिमन्यु शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिनों-दिन बढ़ने लगा। उस शत्रुदमन बालक ने वेदों का ज्ञान प्राप्त करके अपने पिता अर्जुन से चार पदों[१] और दर्शविध[२] अंगो से युक्त दिव्य एवं मानुष[३] सब प्रकार के धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया। अस्त्रों के विज्ञान, सौष्ठव (प्रयोगपटुता) तथा सम्पूर्ण क्रियाओं में भी महाबली अर्जुन ने उसे विशेष शिक्षा दी थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धनुर्वेद में निम्नांकित चार पाद बताये गये हैं - मन्त्रमुक्त, पाणिमुक्त, मुक्तामुक्त और अमुक्त । जैसा कि वचन है - जिसका मन्त्र द्वारा केवल प्रयोग होता है, उपसंहार नहीं, उसे मन्त्रमुक्त कहते हैं। जिसे हाथ में लेकर धनुष द्वारा छोड़ा जाय, वह बाण आदि पाणिुक्त कहा गया है। जिसके प्रयोग और उपसंहार दोनों हों वह मुक्तामुक्त है। जो वस्तुतः छोड़ा नहीं जाता, वैसे मन्त्र द्वारा साधित (ध्वजा आदि) है, जिसको देखने मात्र से शत्रु भाग जाते हैं, वह अमुक्त कहलाता है। ये अथवा सूत्र, शिक्षा, प्रयोग तथा रहस्य - ये ही धनुर्वेद के चार पाद है।
  2. आदान, संधान, मोक्षण, निवर्तन, स्थान, मुष्टि, प्रयोग, प्रायश्चित, मण्डल तथा रहस्य - धनुर्वेद के दस अंग है। यथा - ‘तरकस से बाण को निकालना आदान है। उसे धनुष की प्रत्यन्चा पर रखना संधान है, लक्ष्य पर छोड़ना मोक्षण कहा गया है। यदि बाण छोड़ देने के बाद यह मालूम हो जाय कि हमारा विपक्षी निर्बल या शस्त्रहीन है, तो वीर पुरूष मन्त्रशक्ति से उस बाण को लौटा लेते है। इस प्रकार छोड हुए अस्त्र को लौटा लेना विनिवर्तन कहलाता है। धनुष या उसकी प्रत्यन्चा के धारण अथवा शरसंधानकाल में धनुष और प्रत्यन्चा के मध्यदेश को स्थान कहा गया है। तीन या चार अँगुलियों का सहयोग ही मुष्टि है। तर्जनी और मध्यमा अंगुली के अथवा मध्यमा और अंगुष्ठ के मध्य से बाण का संधान करना प्रयोग कहलाता है। स्वतः या दूसरे से प्राप्त होने वाले ज्याघात (प्रत्यन्चा के आधात) और बाण के आघात को रोकने के लिये जो दस्तानों आदि का प्रयोग किया जाता है, उसका नाम प्रायश्चित्त है। चक्राकार घूमते हुए रथ के साथ-साथ घूमने वाले लक्ष्य का वेध मण्डल कहलाता है। शब्द के आधार पर लक्ष्य बींधना अथवा एक ही समय अनेक लक्ष्यों को बींध डालना, ये सब रहस्य के अन्तर्गत है।
  3. ब्रह्मास्त्र आदि को दिव्य और खंग आदि को मानुष कहा गया है।

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