महाभारत आदि पर्व अध्याय 220 श्लोक 74-89

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विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्‍याय: आदि पर्व (हरणाहरण पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 74-89 का हिन्दी अनुवाद

धनंजय ने अभिमन्यु को (अस्त्र-शस्त्रों के) आगम और प्रयोग में अपने समान बना दिया था। वे सुभद्रा कुमार को देखकर बहुत संतुष्ट रहते थे। वह दूसरों को तिरस्कृत करने वाले समस्त सद्गुणों से सम्पन्न, सभी उत्तम लक्षणों से सुशोभित एवं दुर्घर्ष था। उसके कंधे वृषभ के समान हष्ट-पुष्ट थे तथा मुँह बाये हुए सर्पों की भाँति वह शत्रुओं को भयानक प्रतीत होता था। उसमें सिंह के समान गर्व था तथा मतवाले गजराज की भाँति पराक्रम था। वह महाधनुर्धर वीर अपने गम्भीर स्वर से मेघ और दुन्दुभि की ध्वनि को लजा देता था। उसका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मन में आह्लाद उत्पन्न करता था। वह शूरता, पराक्रम, रूप और आकृति - सभी बातों में श्रीकृष्ण के समान ही जान पड़ता था। अर्जुन अपने उस पुत्रों को वैसी ही प्रसन्नता से देखते थे, जैसे इन्द्र उन्हें देखा करते थे। शुभलक्षणा पांचाली ने भी अपने पाँचों पतियों से पाँच श्रेष्ठ पुत्रों को प्राप्त किया। वे सब के सब वीर और पर्वत के समान अविचल थे। युधिष्ठिर से प्रतिविन्धय, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकर्मा, नकुल से शतानीक और सहदेव से श्रुतसेन उत्पन्न हुए थे। इन पाँच वीर महारथी पुत्रों को पाचाली (द्रौपदी) ने उसी प्रकार जन्म दिया, जैसे अदिति ने बारह आदित्यों को। ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर से उसके पुत्र का नाम शास्त्र के अनुसार प्रतिविन्ध्य बताया। उनका उद्देश्य यह था कि यह प्रहार जनित वेदना के ज्ञान में विन्ध्य पर्वत के समान हो।
(इसे शत्रुओं के प्रहार से तनिक भी पीड़ा न हो)। भीमसेन सहस्त्र सोमयाग करने के पश्चात् द्रौपदी ने उनसे सोम और सूर्य के समान तेजस्वी महान् धनुर्धर पुत्र को उत्पन्न किया था, इसलिय उसका नाम सुतसोम रक्खा गया। किरीटधारी अर्जुन ने महान् एवं विख्यात कर्म करने के पश्चात् लौटकर द्रौपदी से पुत्र उत्पन्न किया था, इसलिये उनके पुत्र का नाम श्रुतकर्मा हुआ। कौरवकुल के महामना राजर्षि शतानीक के नाम पर नकुल ने अपने कीर्तिवर्धक पुत्र का नाम शतानीक रख दिया। तदनन्तर कृष्णा ने सहदेव से अग्निदेवता सम्बन्धी कृत्तिका नक्षत्र में एक पुत्र उत्पन्न किया, इसलिये उसका नाम श्रुतसेन रक्खा गया (श्रुतसेन अग्नि का ही नामान्तर है)। राजेन्द्र ! ये यशस्वी द्रौपदी कुमार एक एक वर्ष के अन्तर से उत्पन्न हुए थे और एक दूसरे का हित चाहने वाले थे। भरतश्रेष्ठ ! पुरोहित धौम्य ने क्रमशः उन सभी बालकों के जातकर्म, चूड़ाकरण और उपनयन आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले उन बालकों ने धौम्य मुनि से वेदाध्ययन करने के पश्चात् अर्जुन से सम्पूर्ण दिव्य और मानुष धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया। राजेश्वर ! देवपुत्रों के समान चैड़ी छाती वाले उन महारथी पुत्रों से संयुक्त हो पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत हरणाहरणपर्व में दो सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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