महाभारत आदि पर्व अध्याय 227 श्लोक 20-38

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सप्तविंशत्यधिकद्विशततम (227) अध्‍याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: सप्तविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद

‘ये दोनों पुरातन ऋषिदेव नर नारायण सम्पूर्ण देवताओं, असुरों, यक्षों, राक्षसों, गन्धर्वों, मनुष्यों, किन्नरों तथा नागों के लिये भी परम पूजनीय हैं। ‘अतः इन्द्र ! तुम्हें देवताओं के साथ यहाँ से चले जाना ही उचित है। खाण्डववन के इस विनाश को तुम प्रारब्ध का ही कार्य समझो’। यह आकाशवाणी सुनकर देवराज इन्द्र ने इसे ही सत्य माना और क्रोध तथा अमर्ष छोड़कर वे उसी समय स्वर्ग लोक को लौट गये राजन् ! महात्मा इन्द्र को वहाँ से प्रस्थान करते देख समस्त स्वर्गवासी देवता सेनासहित उनके पीछे-पीछे चले गये। उस समय देवताओं सहित देवराज इन्द्र को जाते देख वीरवर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने सिंहनाद किया। राजन् ! देवराज के चले जाने पर वीरवर केशव और अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न हो उस समय बेखटके खाण्डववन का दाह कराने लगे। जैसे प्रबल वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती हैं, उसी प्रकार अर्जुन ने देवताओं को भगाकर अपने बाणों के समुदाय से खाण्डववासी प्राणियों को मारना आरम्भ किया। सव्यसाची अर्जुन के बाण चलाते समय उनके बाणों से कट जाने के कारण कोई भी जीव वहाँ से बाहर न निकल सका। अमोघ अस्त्रधारी अर्जुन को उस समय बडे़ से बडे़ प्राणी देख भी न सके, फिर रणभूमि में युद्ध तो कर ही कैसे सकते थे। वे कभी एक ही बाण से सैंकड़ों को बींध डालते थे और कभ एक ही को सौ बाणों से घायल कर देते थे। वे सभी प्राणी प्राणशून्य होकर साक्षात् काल से मारे हुए की भाँति आग में गिर पड़ते थे। वे वन के किनारे ही या दुर्गम स्थानों में हों, कहीं भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। पितरों और देवताओं के लोक में भी खाण्डववन के दाह की गर्मी पहुँचने लगी। बहुतेरे प्राणियों के समुदाय कातर ही जोर-जोर से चीत्कार करने लगे हाथी, मृग और चीते भी रोदन करते थे। उनके आर्तनाद ने गंगा तथा समुद्र के भीतर रहने वाले मत्सय भी थर्रा उठे। उस वन में रहने वाले जो विद्याधर जाति के लोग थे, उनकी भी वही दशा थी। महाबाहो ! उस समय कोई श्रीकृष्ण और अर्जुन की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता था; फिर युद्ध करने की तो बात ही क्या है। जो कोई राक्षस, दानव और नाग वहाँ एक साथ संघ बनाकर निकलते थे, उन सबको भगवान् श्रीहरि चक्र द्वारा मार देते थे। वे तथा दूसरे विशालकाय प्राणी चक्र के वेग से शरीर और मस्तक छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण निर्जीव ही प्रज्वलित आग में गिर पड़ते थे। इस प्रकार वन जन्तुओं के मांस, रूधिर और मेदे के समूह से अत्यन्त तृृप्त हो अग्निदेव ऊपर आकाशचारी होकर धूमरहित हो गये। उनकी आँखे चमक उठीं, जिह्वा में दीप्ति आ गयी और उनका विशाल मुख भी अत्यन्त तेज से प्रकाशित होने लगा। उनके चमकीले केश ऊपर की ओर उठे हुए थे, आँखे पिंगल वर्ण की थी और वे प्राणियों के मेदे का रस पी रहे थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन का दिया हुआ वह इच्छानुसार भोजन पाकर अग्निदेव बडे़ प्रसन्न और पूर्ण तृप्त हो गये। उन्हें बड़ी शान्ति मिली।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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