महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 135-154

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सप्तषष्टितम (67) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: सप्तषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 135-154 का हिन्दी अनुवाद

‘देवि ! तुम इस मन्त्र द्वारा जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी-उसी के कृपा प्रसाद से पुत्र उत्पन्न करोगी। दुवार्सा के ऐसा कहने पर वह सतीसाध्वी यशस्विनी बाला यद्यपि अभी कुमारी कन्या थी, तो भी कौतुहलवश उसने भगवान सूर्य का आवाहन किया। तब सम्पूर्ण जगत् में प्रकाश फैलाने वाले भगवान सूर्य ने कुन्ती के उदर में गर्भ स्थापित किया और उस गर्भ से एक ऐसे पुत्र को जन्म दिया, जो समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ था। यह कुण्डल और कवच के साथ ही प्रकट हुआ था। देवताओं के बालकों में जो सहज कान्ति होती है, उसी से वह सुशोभित था। उसने अपने तेज से वह सूर्य के समान जान पड़ता था। उसके सभी अंग मनोहर थे, जो उसके सम्पूर्ण शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। उस समय कुन्ती ने माता-पिता आदि बान्धव-पक्ष के भय से उस यशस्वी कुमार को छिपाकर एक पेटी में रखकर जल में छोड़ दिया। जल छोड़े हुए उस बालक को राधा के पति महायशस्वी अधिरथ सूत ने लेकर राधा की गोद में दे दिया और उसे राधा का पुत्र बना लिया। उन दोनों दंपत्ति ने उस बालक का नाम वसुषेन रखा। वह सम्पूर्ण दिशाओं में भलिभांति विख्यात था। बड़ा होने पर वह बलवान बालक सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला में उत्तम हुआ। उस विजयी वीर ने सम्पूर्ण विदांगों का अध्ययन कर लिया। वसुषेण (कर्ण) बड़ा बुद्विमान् और सत्य पराक्रमी था। जिस समय वह जप में लगा होता, उस महात्मा के पास ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जिसे वह ब्राम्हणों के मांगने पर न दे डाले। भूतभावन इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन के हित के लिये ब्राह्मण का रूप धारण करके वीर कर्ण से दोनों कुण्डल तथा उसके शरीर के साथ उत्पन्न हुआ कवच मांगा। कर्ण ने अपने शरीर में चिपके हुए कवच और कुण्डलों को उधेड़ कर दे दिया। इन्द्र ने विस्मित होकर कर्ण को एक शक्ति प्रदान की और कहा- ‘दुर्धर्ष वीर ! तुम देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसों में से जिस पर भी इस शक्ति को चलाओगे, वह एक व्यक्ति निष्यच ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। पहले कर्ण का नाम इस पृथ्वी पर वसुषेन था। फिर कवच और कुण्डल काटने के कारण वैकर्तन नाम से प्रसिद्व हुआ। जो महायशस्वी वीर कवच धारण किये हुए ही उत्पन्न हुआ, वह पृथा का प्रथम पुत्र कर्ण नाम से ही सर्वत्र विख्यात था। महाराज ! वह वीर सूत कुल में पाला-पोसा जाकर बड़ा हुआ था। नरेश्रेष्ठ कर्ण सम्पूर्ण शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ था। वह दुर्योधन का मन्त्री और मित्र होने साथ ही उसके शत्रुओं का नाश करने वाला था। राजन् ! तुम कर्ण को साक्षात सूर्यदेव का सर्वोत्म अंश जानो। देवताओं के भी देवता जो सनातन पुरूष भगवान नारायण है, उन्हीं के अंश स्वरूप प्रतापी वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण मनुष्यों में अवतीर्ण हुए थे। महाबली बलदेव शेषनाग के अंश थे। राजन्! महातेजस्वी प्रद्युम्न को तुम सनत्कुमार का अंश जानो । इस प्रकार वसुदेवजी के कुल में बहुत से दूसरे-दूसरे नरेन्द्र उपन्न हुए, जो देवताओं के अंश थे। वे सभी अपने कुल की वृद्वि करने वाले थे। महाराज ! मैंने अप्सराओं के जिस समुदाय का वर्णन किया है, उसका अंश भी इन्द्र के आदेश से इन पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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