महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 116-134

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सप्तषष्टितम (67) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: सप्तषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 116-134 का हिन्दी अनुवाद

‘भगवान नर, जिनके सखा भगवान नारायण हैं, इन्द्र के अंश से भूतल में अवतीर्ण होंगे। वहां उनका नाम अर्जुन होगा। और वे पाण्डु के प्रतापी पुत्र माने जायेंगे। ‘श्रेष्ठ देवगण ! पृथ्वी पर यह वर्चा उन्हीं अर्जुन का पुत्र होगा, जो बाल्यवस्था में ही महारथी माना जायेगा। जन्म लेने के बाद सोलह वर्ष की अवस्था तक यह वहां रहेगा। ‘इसके सोलहवें वर्ष में वह महाभारत युद्व होगा, जिसमें आप लोगों के अंश से उत्पन्न हुए वीर पुरूष शत्रु वीरों का संहार करने वाला अद्भुत पराक्रम कर दिखायेंगे। ‘देवताओं ! एक दिन जबकि उस युद्व में नर और नारायण (अर्जुन और श्रीकृष्ण) उपस्थित न रहेंगे, उस मसय शत्रुपक्ष के लोग चक्रव्यूह की रचना करके आप लोगों के साथ युद्व करेंगे। उस युद्व में मेरा यह पुत्र समस्त शत्रु सैनिकों को युद्व से मार भगायेगा और बालक होने पर भी उस अभेद व्यूह में घुसकर निर्भय विचरण करेगा। ‘तथा बड़े-बड़े महारथी वीरों का संहार कर डालेगा। आधे दिन में ही महाबाहु अभिमन्यु समस्त शत्रुओं एक चौथाई भाग को यमलोक पहुंचा देगा। तदनन्तर बहुत से महारथी एक साथ ही उस पर टूट पड़ेगे और वह महाबाहु उन सबका सामना करते हुए संध्या होते-होते पुनः मुझसे आ मिलेगा। वह एक ही वंश पृर्वतक वीर पुत्र को जन्म देगा, जो नष्ट हुए भरतकुल को पुनः धारण करेगा।’ सोम का यह वचन सुनकर समस्त देवताओं ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी वात मानली और सबने चन्द्रमा का पूजन किया। राजा जनमेजय ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पिता के पिता का जन्म रहस्य बताया है। महाराज ! महारथी धृष्टद्युम्न को तुम अग्नि का भाग समझो। शिखण्डी राक्षस से अंश से उत्पन्न हुआ था। वह पहले कन्या रूप में उत्पन्न होकर पुनः पुरूष हो गया था। भरतर्षभ ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि द्रौपदी के जो पांच पुत्र थे, उनके रूप में पांच विश्‍वेदेवगण ही प्रकट हुए थे। उनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं - प्रतिविध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, नकुलनन्दन शतानीक तथा पराक्रमी श्रुतसेन। वसुदेवजी के पिता का नाम था शूरसेन। वे यदुवंश के एक श्रेष्ठ पुरूष थे। उनके पृथा नाम वाली एक कन्या हुई जिजसे समान रूपवती स्त्री इस पृथ्वी पर दूसरी नहीं थी। उग्रसेन के फुफेरे भाई कुन्तीभोज सन्तानहीन थे। पराक्रमी शूरसेन ने पहले कभी उनके सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं अपनी पहली सन्तान आपको दे दूंगा’। तदनन्तर सबसे पहले उनके यहां कन्या ही उत्पन्न हुई। शूरसेन ने अनग्रह की इच्छा से राजा कुन्तीभोज को अपनी वह पुत्री पृथा प्रथम सन्तानें होने के कारण गोद दे दी। पिता के घर पर रहते समय पृथा को ब्राम्हणों और अतिथियों के स्वागत-सत्कार का कार्य सौंपा गया था। एक दिन उसने कठोर व्रत का पालन करने वाले भयंकर क्रोधी तथा उग्र प्रकृति वाले एक ब्राहम्ण महर्षि की, जो धर्म के विषय में अपने निश्‍चय को छिपाये रखते थे और लोग जिन्हें दुभार्सा के नाम से जानते हैं, सेवा की। वे ऊपर से उग्र स्वभाव के थे परन्तु उनका हृदय महान् होने के कारण सबके द्वारा प्रशंसित था। पृथा ने पूरा प्रयत्न करके अपनी सेवाओं द्वारा मुनि को संतुष्ट किया । भगवान दुवार्सा ने संतुष्ट होकर पृथा को प्रयोग विधि सहित एक मन्त्र का विधि पूर्वक उपदेश किया और कहा -‘सुभगे ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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