महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 93-115

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सप्तषष्टितम (67) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: सप्तषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 93-115 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायनजी बोले - राजन् ! सुनो - १ दुर्योधन, २ युयुत्सु, ३ दुःशासन, ४ दुःसह, ५ दु:शल, ६ दुर्मुख, ७ विविंशति, ८ विकर्ण, ९ जलसंध, १० सुलोचन, ११ विन्द, १२ अनुविन्द, १३ दुर्धर्ष, १४ सुवाहु, १५ दुष्प्रधर्षण, १६ दुभर्षण, १७ दुर्मुख, १८ दुष्कर्ण, १९ कर्ण, २० चित्र, २१ उपचित्र, २२ चित्राक्ष, २३ चारू, २४ चित्रांगद, २५ दुर्मद, २६ दुष्पधर्ष, २७, विवित्सु, २८, विकट, २९ सम, ३० ऊर्णनाभ, ३१ पद्यनाभ, ३२ नन्द, ३३ उपनन्द, ३४ सेनापति, ३५ सुषेण, ३६ कुण्डोदर, ३७ महोदर, ३८ चित्रवाहु, ३९ चित्रवर्मा, ४० सुवर्मा, ४१ दुर्विरोचन, ४२ अयोबाहु, ४३ महाबाहु, ४४ चित्रचाक, ४५ सुकुण्डल, ४६ भीमवेग, ४७ भीमबल, ४८ बलाकी, ४९ भीम, ५० विक्रम, ५१ उग्रायुध, ५२ भीमसर, ५३ कनकायु, ५४ धड़ायुध, ५५ दृढवर्मा, ५६ दृढक्षत्र, ५७ सोमकीर्ति, ५८ अनुदर, ५९ जरासंध, ६० दृढसंध, ६१ सत्यसंध, ६२ सहस्त्रवाक, ६३ उग्रश्रवा, ६४ उग्रसेन, ६५ क्षेममूर्ति, ६६ अपराजित, ६७ पण्डितक, ६८ विशालाक्ष, ६९ दुराधन, ७० दृढहस्थ, ७१ सुहस्थ, ७२ वातवेग, ७३ सुवर्चा, ७४ आदित्यकेतु, ७५ बहाशी, ७६ नागदत्त, ७७ अनुयायी, ७८ कबची, ७९ निसंगी, ८० दण्डी, ८१ दण्डधार, ८२ धर्नुग्रह, ८३ उग्र, ८४ भीमरथ, ८५ वीर, ८६ वीरबाहु, ८७ अलोलोप, ८८ अभय, ८९ रौद्रकर्मा, ९० दृढरथ, ९१ अनाधृष्य, ९२ कुण्डभेदी, ९३ विरावी, ९४ दीर्घलोचन, ९५ दीर्घबाहु, ९६ महाबाहु, ९७ व्यूढोरू, ९८ कनकांगद, ९९ कुण्डज, १०० चित्रक - ये धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे। इनके सिवा दुःशला नाम की एक कन्या थी। धृतराष्ट्र का वह पुत्र जिसका नाम युयुत्सु था वैश्‍या के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। वह दुर्योधन आदि सौ पुत्रों से अतिरिक्त था। राजन् ! इस प्रकार धृतराष्ट्र के एक सौ एक पुत्र तथा एक कन्या बताई गयी है। इनके नामों का जो क्रम दिया गया है, उसी के अनुसार विद्वान पुरूष इन्हें जेठा और छोटा समझते हैं। धृतराष्ट्र के सभी पुत्र उत्कृष्ठ रथी, शूरवीर और युद्व की कला में कुशल थे। राजन् ! वे सब-के-सब वेदवेत्ता, शास्त्रों के पारंगत विद्वान, संग्राम विद्या में प्रवीण तथा उत्तम विद्या और उत्तम कुल से सुशोभित थे। भूपाल ! उन सबका सुयोग्य स्त्रियों के साथ विवाह हुआ था। महाराज ! कुरूराज दुर्योधन ने समय आने पर शकुनि की सलाह से अपनी वहिन दुःशला का विवाह सिन्धु देश के राजा जयद्रथ के साथ कर दिया। जनमेजय ! राजा युधिष्ठिर को तो तुम धर्म का अंश जानो। भीमसेन को वायु का और अर्जुन को देवराज इन्द्र का अंश जानो। रूप-सौन्दर्य की दृष्टि से इस पृथ्वी पर जिनकी समानता करने वाला कोई नहीं थी, वे समस्त प्राणियों का मन मोह लेने वाले नकुल और सहदेव अश्विनीकुमारों के अंश से उत्पन्न हुए थे। वर्चा नाम से विख्यात जो चन्द्रमा का प्रतापी पुत्र था वही महायशस्वी अर्जुन कुमार अभिमन्यु हुआ। जनमेजय ! उसके अवतार काल में चन्द्रमा ने देवताओं से इस प्रकार कहा -‘मेरा पुत्र मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है, अतः मैं इसे अधिक दिनों के लिये नहीं दे सकता। इसलिये मृत्युलोक में इसके रहने की कोई अवधि निश्चित कर दी जाये। फिर उस अवधि का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। ‘पृथ्वी पर असुरों का वध करना देवताओं का कार्य है और वह हम सबके लिये करने योग्य है। अतः उस कार्य की सिद्वि के लिये यह वर्चा भी वहां अवश्‍य जायेगा। परन्तु दीर्घकाल तक वहां नहीं रह सकेगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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