महाभारत आदि पर्व अध्याय 76 श्लोक 52-63
षट्सप्ततितम (76) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
‘वे भयंकर स्वभाव वाले दैत्य मुझे ब्राह्मणत्व से गिराना चाहते हैं। इसलिये प्रतिदिन मेरे विरुद्ध आचरण कर रहे हैं। इस पाप का परिणाम यहां अवश्य प्रकट होगा। ब्रह्म हत्या किसे नहीं जला देगी। चाहे वह इन्द्र ही क्यों न हो? जब गुरु विद्या का प्रयोग करके बुलाया, तब उनके पेट में बैठे हुए कच भयभीत हो धीरे से बोले। कच ने कहा- भगवन् ! आप मुझपर प्रसन्न हों, मैं कच हूं और आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। जैसे पुत्र पर पिता का बहुत प्यार होता है, उसी प्रकार आप मुझे भी अपना स्नेहभाजन समझें। वैशम्पायनजी कहते हैं- उनकी आवाज सुनकर शुक्राचार्य ने पूछा- ‘विप्र ! किस मार्ग से जाकर तुम मेरे उदर में स्थित हो गये? ठीक-ठीक बताओ’। कच ने कहा- गुरुदेव ! आपके प्रसाद से मेरी स्मरणशक्ति ने साथ नहीं छोड़ा है। जो बात जैसे हुई है, वह सब मुझे याद है। इस प्रकार पेट फाड़कर निकल आने से मेरी तपस्या का नाश होगा। वह न हो, इसीलिये मैं यहां घोर क्लेश सहन करता हूं। आचार्यपाद ! असुरों ने मुझे मारकर मेरे शरीर को जलाया और चूर्ण बना दिया। फिर उसे मदिरा में मिलाकर आपको पिला दिया ! आप ब्राह्मी, आसुरी और दैवी तीनों प्रकार की मायाओं को जानते हैं। आपके होते हुए कोई इन मायाओं का उल्लंघन कैसे कर सकता है? शुक्राचार्य बोले- बेटी देवयानी ! अब तुम्हारे लिये कौन-सा प्रिय कार्य करूं? मेरे वध से ही कच का जीवित होना सम्भव है। मेरे उदर को विदीर्ण करने के सिवा और कोई ऐसा उपाय नहीं है,जिससे मेरे शरीर में बैठा हुआ कच बाहर दिखाई दे। देवयानी ने कहा- पिताजी ! कच का नाश और आपका वध- ये दोनों ही शोक अग्नि के समान मुझे जला देंगे। कच के नष्ट होने पर मुझे शान्ति नहीं मिलेगी और आपका वध हो जाने पर मैं जीवित नहीं रह सकूंगी। शुक्राचार्य बोले- बृहस्पति के पुत्र कच ! अब तुम सिद्ध हो गये, क्योंकि तुम देवयानी के भक्त हो और वह तुम्हें चाहती है। यदि कच के रुप में तुम इन्द्र नहीं हो, तो मुझसे मृतसंजीविनी विद्या ग्रहण करो। केवल एक ब्राह्मण को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे पेट से पुन: जीवित निकल सके। इसलिये तुम विद्या ग्रहण करो। तात ! मेरे इस शरीर से जीवित निकलकर मेरे लिये पुत्र के तुल्य हो मुझे पुन: जिला देना। मुझ गुरु से विद्या प्राप्त करके विद्वान् हो जाने पर भी मेरे प्रति धर्मयुक्त दृष्टि से ही देखना। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! गुरु से संजीविनी विद्या प्राप्त करके सुन्दर रूप वाले विप्रवर कच तत्काल ही महर्षि शुक्राचार्य का पेट फाड़कर ठीक उसी तरह बाहर निकल आये, जैसे दिन वीतने पर पूर्णिमा की संध्या को चन्द्रमा प्रकट हो जाते हैं। मूर्तिमान् वेदराशि के तुल्य शुक्राचार्य को भूमि पर पड़ा देख कच ने भी अपने मरे हुए गुरु को विद्या के वल से जिलाकर उठा दिया और उस सिद्ध विद्या को प्राप्त कर लेनेपर गुरु को प्रणाम करके वे इस प्रकार बोले-‘मैं विद्या से शून्य था, दस दशा में मेरे इन पूजनीय आचार्य जैसे मेरे दोनों कानों में मृतसंजीविनी विद्यारुप अमृत की धारा डाली है, इसी प्रकार जो कोई दूसरे ज्ञानी महात्मा मेरे कानों में ज्ञान रुप अमृत का अभिषेक करेंगे, उन्हें भी मैं अपना माता-पिता मानूंगा (जैसे गुरुदेव शुक्राचार्य को मानता हूं) गुरुदेव के द्वारा किये हुए उपकार को स्मरण रखते हुए शिष्य को उचित है कि वह उनसे कभी द्रोह न करे।
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