महाभारत आदि पर्व अध्याय 83 श्लोक 19-34
त्र्यशीतितम (83) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
देवयानी बोली- भामिनि ! तुम तो कहती थीं कि मेरे पास कोई ॠषि आया करते हैं। यह बहाना लेकर तुम राजा ययाति को ही अपने पास आने के लिये प्रोत्साहन देती रहीं। मैंने पहले ही कह दिया था कि तुमने कोई पाप किया है। शर्मिष्ठे ! तुमने मेरे अधीन होकर भी मुझे अप्रिय लगने वाला बर्ताव क्यों किया? तुम फिर उसी असुर-धर्म पर उतर आयीं। मुझसे डरती भी नहीं हो? शर्मिष्ठा बोली- मनोहर मुसकान वाली सखी ! मैंने जो ॠषि कहकर अपने स्वामी का परिचय दिया था, सो सत्य ही है। मैं न्याय और धर्म के अनुकूल आचरण करती हूं, अत: तुमसे नहीं डरती। जब तुमने पति का वरण किया था, उसी समय मैंने भी कर लिया। शोभने ! जो सखी का स्वामी होता है, वही उसके अधीन रहने वाली अन्य अविवाहिता सखियों का भी धर्मत: पति होता है। तुम ज्येष्ठ हो, ब्राह्मण की पुत्री हो, अत: मेरे लिये माननीय एवं पूजनीय हो; परंतु ये राजर्षि मेरे लिये तुमसे भी अधिक पूजनीय हैं। क्या यह बात तुम नहीं जानतीं? शुभे ! तुम्हारे पिता और मेरे गुरु (शुक्राचार्य) जी ने हम दानों को एक ही साथ महाराज की सेवा में समर्पित किया है। तुम्हारे पति और पूजनीय महाराज ययाति भी मुझे पालन करने योग्य मानकर मेरा पोषण करते हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- शर्मिष्ठा का यह वचन सुनकर देवयानी ने कहा- ‘राजन् ! अब मैं यहां नहीं रहूंगी। आपने मेरा अत्यन्त अप्रिय किया है’। ऐसा कहकर तरुणी देवयानी आंखों में आंसू भरकर सहसा उठी और तुरंत ही शुक्राचार्य जी के पास जाने के लिये वहां से चल दी। यह देख उस समय राजा ययाति व्यथित हो गये। वे व्याकुल हो देवयानी की समझाते हुए उसके पीछे-पीछे गये,किंतु वह नहीं लौटी। उसकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं। वह राजा से कुछ न बोलकर केवल नेत्रों से आंसू बहाये जाती थी। कुछ ही देर में वह कविपुत्र शुक्राचार्य के पास जा पहुंची। पिता को देखती ही वह प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हो गयी। तदनन्तर राजा ययाति ने भी शुक्राचार्य की वन्दना की। देवयानी ने कहा- पिताजी ! अधर्म ने धर्म को जीत लिया। नीच की उन्नति हुई और उच्च की अवनति। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा मुझे लांघकर आगे बढ़ गयी। इन महाराज ययाति से ही उसके तीन पुत्र हुए हैं, किंतु तात ! मुझ भाग्यहीना के दो ही पुत्र हुए हैं। यह मैं आपसे ठीक बता रही हूं। भृगुश्रेष्ठ ! ये महाराज धर्मज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हैं; किंतु इन्होंने ही मार्यादा का उल्लंघन किया है। कविनन्दन ! यह आपसे यथार्थ कह रही हूं। शुक्राचार्य ने कहा- महाराज ! तुमने धर्मज्ञ होकर अधर्म को प्रिय मानकर उसका आचरण किया है। इसलिये जिसको जीतना कठिन है, वह वृद्धावस्था तुम्हें शीघ्र ही धर दबायेगी। ययाति बोले-भगवन् ! दानवराज की पुत्री मुझसे ॠतुदान मांग रही थी; अत: मैंने धर्म-सम्मत मानकर यह कार्य किया, किसी दूसरे विचार से नहीं। ब्रह्मन् ! जो पुरुष न्याय युक्त ॠतु की याचना करने वाली स्त्री को ॠतु दान नहीं देता, वह ब्रह्मवादी विद्वानों द्वारा भ्रूणहत्या करने वाला कहा जाता है। जो न्याय सम्मत कामना से युक्त गम्या स्त्री के द्वारा एकान्त में प्रार्थना करने पर उसके साथ समागम नहीं करता, वह धर्मशास्त्र में विद्वानों द्वारा गर्भ की हत्या करने वाला बताया जाता है।
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