महाभारत आदि पर्व अध्याय 85 श्लोक 19-35
पञ्चाशीतितम (85) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
जब ब्राह्मण आदि वर्णों ने देखा कि महाराज ययाति अपने छोटे पुत्र पुरु को पद पर अभिषिक्त करना चाहते हैं,तब उनके पास आकर इस प्रकार बोले- ‘प्रभो ! शुक्राचार्य के नाती और देवयानी के ज्येष्ठ पुत्र यदु के होते हुए उन्हें लांघकर आप पुरु को राज्य क्यों देते हैं? ‘यदु आपके ज्येष्ठ पुत्र हैं। उनके बाद तुर्वसु उत्पन्न हुए हैं। तदनन्तर शर्मिष्ठा के पुत्र क्रमश: द्रुह्यु, अनु और पुरु हैं। ज्येष्ठ पुत्रों का उल्लंघन करके छोटा पुत्र राज्य का अधिकारी कैसे हो सकता है? हम आपको इस बात का स्मरण दिला रहे हैं। आप धर्म का पालन कीजिये’। ययाति ने कहा- ब्राह्मण आदि सब वर्ण के लोग मेरी बात सुनें, मुझे ज्येष्ठ पुत्र को किसी तरह राज्य नहीं देना है। मेरे ज्येष्ठ पुत्र यदु ने मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया है। जो पिता के प्रतिकूल हो, वह सत्पुरुषों की दृष्टि में पुत्र नहीं माना गया है। जो माता और पिता की आज्ञा मानता है, उसका हित चाहता है, उनके अनुकूल चलता है तथा माता-पिता के प्रति पुत्रोचित बर्ताव करता है, वही वास्तव में पुत्र है। ‘पुत्’ यह नरक का नाम है ! नरक को दु:ख रुप ही मानते हैं पुत् नामक नरक से त्राण (रक्षा) करने के कारण ही लोग इहलोक और परलोक में पुत्र की इच्छा करते हैं। अपने अनुरुप पुत्र देवताओं, ॠषियों और पितरों के पूजन का अधिकारी होता है। जो बहुत-से मनुष्यों के लिये गुणकारक (लाभदायक) हो, उसी को ज्येष्ठ पुत्र कहते हैं। वह गुण कारक पुत्र ही इहलोक और परलोक में ज्येष्ठ के अंश का भागी होता है। जो उत्तम गुणों से सम्पन्न है, वही पुत्र श्रेष्ठ माना गया है, दूसरा नहीं। गुणहीन पुत्र व्यर्थ कहा गया है। धर्मज्ञ पुरुष पुत्र के ही कारण पितरों के धर्म का बखान करते हैं। यदु ने मेरी अवहेलना की है; तुर्वसु, द्रुह्यु तथा अनु ने भी मेरा बड़ा तिरस्कार किया है। पुरु ने मेरी आज्ञा का पालन किया; मेरी बात को अधिक आदर दिया है; इसी ने मेरा बुढ़ापा ले रक्खा था। अत: मेरा यह छोटा पुत्र ही वास्तव में मेरे राज्य और धन को पाने का अधिकारी है। पुरु ने मित्ररुप होकर मेरी कामनाऐं पूर्ण की हैं। स्वयं शुक्राचार्य ने मुझे वर दिया है कि ‘जो पुत्र तुम्हारा अनुसरण करे, वही राजा एवं समस्त भूखण्ड का पालक हो’। अत: मैं आप लोगों से विनयपूर्ण आग्रह करता हूं कि पुरु को ही राज्य पर अभिषिक्त करें। प्रजावर्ग के लोग बोले- जो पुत्र गुणवान और सदा माता-पिता का हितैषी हो, वह छोटा होने पर भी श्रेष्ठतम है। वही सम्पूर्ण कल्याण का भागी होने योग्य है। पुरु आपका प्रिय करने वाले पुत्र हैं, अत: शुक्राचार्य के वरदान के अनुसार ये ही इस राज्य को पाने के अधिकारी हैं। इस निश्चय के विरुद्ध कुछ भी उत्तर नहीं दिया जा सकता। वैशम्पावयनजी कहते हैं- नगर और राज्य के लोगों ने संतुष्ट होकर जब इस प्रकार कहा तब नहुषनन्दन ययाति ने अपने पुत्र पुरु को ही अपने राज्य पर अभिषिक्त किया। इस प्रकार पुरु को राज्य दे वनवास की दीक्षा लेकर राजा ययाति तपस्वी ब्राह्मणों के साथ नगर से वाहर निकल गये। युदु से यादव क्षत्रिय उत्पन्न हुए, तुर्वसु की संतान यवन कहलायी, द्रुह्यु के पुत्र भोज नाम से प्रसिद्ध हुए और अनु से मलेच्छ जातियां उत्पन्न हुईं। राजा जनमेजय ! पुरु से पौरव वंश चला; जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो। तुम्हें इन्द्रिय-संयम पूर्वक एक हजार वर्षों तक यह राज्य करना है।
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