महाभारत आदि पर्व अध्याय 86 श्लोक 1-17
षडशीतितम (86) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
वनमें राजा ययाति की तपस्या और उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति
वैशम्पावयनजी कहते हैं- जनमेजय ! इस प्रकार नहुषनन्दन राजा ययाति अपने प्रिय पुत्र पुरु का राज्याभिषेक करके प्रसन्नता पूर्वक बानप्रस्थ मुनि हो गये। वे वन में ब्राह्मणों के साथ रहकर कठोर व्रत का पालन करते हुए फल-मूल का आहार तथा मन और इन्द्रियों का संयम करते थे, इससे वे स्वर्गलोक में गये। स्वर्गलोक में जाकर वे बड़ी प्रसन्नता के साथ सुखपूर्वक रहने लगे और बहुत काल के बाद इन्द्र द्वारा वे पुन: स्वर्ग से नीचे गिरा दिये गये। स्वर्ग से भ्रष्ट हो पृथ्वी पर गिरते समय वे भूतल तक नहीं पहुंचे, आकाश में ही स्थिर हो गये, ऐसा मैंने सुना है। फिर यह भी सुनने में आया हे कि वे पराक्रमी राजा ययाति मुनि समाज में राजा वसुमान्, अष्टक, प्रतर्दन और शिबि से मिलकर पुन: बहां से साधु पुरुषों के संग के प्रभाव से स्वर्गलोक में चले गये। जनमेजय ने पूछा- मुने ! किस कर्म से वे भूपाल पुन: स्वर्ग में पहुंचे थे? विप्रवर ! मैं ये सारी बातें पूर्णरुप से यथावत् सुनना चाहता हूं। इन ब्रह्मर्षियों के समीप आप इस प्रसंग का वर्णन करें। कुरुवंश की वृद्धि करने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी राजा ययाति देवराज इन्द्र के समान थे। उनका यश चारों ओर फैला था। मैं उन सत्यकीर्ति महात्मा ययाति का चरित्र, जो इहलोक और स्वर्गलोक में सर्वत्र प्रसिद्ध है, सुनना चाहता हूं। वैशम्पायनजी बोले- जनमेजय ! ययाति की उत्तम कथा इहलोक और स्वर्गलोक में भी पुण्यदायक है। वह सब पापों का नाश करने वाली है, मैं तुमसे उसका वर्णन करता हूं। नहुषपुत्र महाराज ययाति अपने छोटे पुत्र पुरु को राज्यपर अभिषिक्त करके यदु आदि अन्य पुत्रों को सीमान्त (किनारे के देशों) में रख दिया। फिर बड़ी प्रसन्नता के साथ वे वन में गये। वहां फलमूल का आहार करते हुए, उन्होंने दीर्घकाल तक वन में निवास किया। उन्होंने अपने मन को शुद्ध करके क्रोध पर विजय पायी और प्रतिदिन देवताओं तथा पितरों का तर्पण करते हुए वानप्रस्थाश्रम की विधि से शास्त्रीय विधान के अनुसार अग्निहोत्र प्रारम्भ किया। वे राजा शिलोञ्छवृत्ति का आश्रय ले अन्न का भोजन करते थे। भोजन से पूर्व वे वन में उपलब्ध होने वाले फल, मूल आदि हविष्य के द्वारा अतिथियों का आदर-सत्कार करते थे। राजा को इसी वृत्ति से रहते हुए एक हजार वर्ष बीत गये। उन्होंने मन और वाणी पर संयम करके तीस वर्षों तक केवल जल का आहार किया। तत्पश्चात् वे आलस्य रहित हो एक वर्ष तक केवल वायु पीकर रहे। फिर एक वर्ष तक अग्नियों के बीच में बैठकर तपस्या की। इसके बाद छ: महीनों तक हवा पीकर वे एक पैर से खड़े रहे। तदनन्तर पुण्यकीर्ति महाराज ययाति पृथ्वी और आकाश में अपना यश फैलाकर स्वर्गलोक में चले गये।
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