महाभारत आदि पर्व अध्याय 87 श्लोक 1-13
सप्ताशीतितम (87) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
इन्द्र के पूछने पर ययाति का अपने पुत्र पुरु को दिये हुए उपदेश की चर्चा करना
वैशम्पावयनजी कहते हैं- जनमेजय ! स्वर्गलोक में जाकर महाराज ययाति देवभवन में निवास करने लगे। वहां देवताओं, साध्यगणों, मरुद्गणों तथा वसुओं ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। सुना जाता है कि पुण्यात्मा तथा जितेन्द्रिय राजा ययाति देवलोक और ब्रह्मलोक में भ्रमण करते हुए वहां दीर्घकाल तक रहे। एक दिन नृपश्रेष्ठ ययाति देवराज इन्द्रके पास आये। दोनों में वार्तालाप हुआ और अन्त में इन्द्र ने राजा ययाति से पूछा। इन्द्र ने पूछा- राजन् ! जब पुरु तुमसे वृद्धावस्था लेकर तुम्हारे स्वरुप से इस पृथ्वी पर विचरण करने लगा, तुम सत्य कहो, उस समय राज्य देकर तुमने उसको क्या आदेश दिया था? ययाति ने कहा- (देवराज ! मैंने अपने पुत्र पुरु से कहा था कि) बेटा ! गंगा और यमुना के बीच का यह सारा प्रदेश तुम्हारे अधिकार में रहेगा। यह पृथ्वी का मध्य भाग है, इसके तुम राजा होओगे और तुम्हारे भाई सीमान्त देशों के अधिपति होंगे। देवेन्द्र ! ( इसके बाद मैंने यह आदेश दिया कि ) मनुष्य दीनता, शठता,और क्रोध न करे। कुटिलता, मात्सर्य और वैर कहीं न करे। माता, पिता, विद्वान, तपस्वी तथा क्षमाशील पुरुष बुद्धिमान् मनुष्य कभी अपमान न करे। शक्तिशाली पुरुष सदा क्षमा करता है। शक्तिहीन मनुष्य सदा क्रोध करता है। दुष्ट मानव साधु पुरुष से और दुर्बल अधिक बलवान् से द्वेष करता है। कुरुप मनुष्य रुपवान् से, निर्धन धनवान् से, अकर्मण्य कर्मनिष्ठ से और अधार्मिक धर्मात्मा से द्वेष करता है। इसी प्रकार गुणहीन मनुष्य गुणवान् से डाह रखता है। इन्द्र ! यह कलिका का लक्षण है। क्रोध करने वालों से वह पुरुष श्रेष्ठ है जो कभी क्रोध नहीं करता। इसी प्रकार असहनशील से सहनशील उत्तम है, मनुष्येतर प्राणियों से मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मूर्खों से विद्वान उत्तम हैं। यदि कोई किसी की निन्दा करता था उसे गाली देता हो तो वह भी बदले में निन्दा या गाली-गलौच न करे; क्योंकि जो गाली या निन्दा सह लेता है, उस पुरुष का आन्तरिेक दु:ख ही गाली देने वाले या अपमान करने वाले को जला डालता है। साथ ही उसके पुण्य को भी वह ले लेता है। क्रोधवश किसी के मर्म-स्थान में चोट न पहुंचाये ( ऐसा बर्ताव नकरे, जिससे किसी को मार्मिक पीड़ा हो )। किसी के प्रति कठोर बात भी मुंह से न निकाले। अनुचित उपाय से शत्रु को भी वश में न करे । जो जी को जलाने वाली हो, जिससे दूसरे को उद्वेग होता हो, ऐसी बात मुंह से न बोले; क्योंकि पापी लोग ही ऐसी बातें बोला करते हैं। जो स्वभाव का कठोर हो, दूसरों के मर्म में चोट पहुंचाता हो, तीखी बातें बोलता हो और कठोर बचनरुपी कांटों से दूसरे मनुष्य को पीड़ा देता हो, उसे अत्यन्त लक्ष्मी हीन ( दरिद्र या अभागा ) समझे। ( उसको देखना भी बुरा है; क्योंकि ) वह कड़वी बोली के रुप में अपने मुंह में बंधी हुई एक पिशाचिनी को ढो रहा है। (अपना बर्ताव और व्यवहार ऐसा रक्खे, जिससे) साधु पुरुष सामने तो सत्कार करें ही, पीठ-पीछे भी उनके द्वारा अपनी रक्षा हो। दुष्ट लोगों की कही हुई अनुचित बातें सदा सह लेनी चाहिये तथा श्रेष्ठ पुरुषों के सदाचार का आश्रय लेकर साधु पुरुषों के व्यवहार को ही अपनाना चाहिये। दुष्ट मनुष्यों के मुख से कटु वचनरुपी वाण सदा छूटते रहते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोक और चिन्ता में डूबा रहता है। वे वाग्वाण दूसरों के मर्मस्थानों पर ही चोट करते हैं। अत: विद्वान पुरुष दूसरे के प्रति ऐसी कठोर वाणी का प्रयोग न करे। सभी प्राणियों के प्रति दया और मैत्री का बर्ताव, दान और सबके प्रति मधुर वाणी का प्रयोग- तीनों लोकों में इनके समान कोई वशीकरण नहीं है। इसलिये कभी कठोर वचन न बोले। सदा सान्तवनापूर्ण मधुर वचन ही बोले। पूजनीय पुरुषों का पूजन (आदर-सत्कार ) करे। दूसरों को दान दे ओर स्वयं कभी किसी से कुछ न मांगे।
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