महाभारत आदि पर्व अध्याय 89 श्लोक 13-23
एकोननवतितम (89) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
जोदु:ख में खिन्न नहीं होता, सुख से मतवाला नहीं हो उठता और सबके साथ समान भाव से बर्ताव करता है, वह धीर कहा गया है। विज्ञ मनुष्य बुद्धि से प्रारब्ध को अत्यन्त बलवान् समझ कर यहां किसी भी विषय में अधिक आसक्त नहीं होता। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! राजा ययाति समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे और नाते में अष्टक के नाना लगते थे। वे अन्तरिक्ष में वैसे ही ठहरे हुए थे, मानो स्वर्गलोक में हों, जब उन्होंने उपर्युक्त बातें कहीं, तब अष्टक ने उनसे पुन: प्रश्न किया। अष्टक बोले- महाराज ! आपने जिन-जिन प्रधान लोकों में रहकर जितने समय तक वहां के सुखों का भली-भांति उपभोग किया है, उन सबका मुझे यथार्थ परिचय दीजिये। राजन् ! आप तो महात्माओं की भांति धर्मों का उपदेश कर रहें हैं। ययाति ने कहा- अष्टक ! मैं पहले समस्त भूमण्डल में चक्रवर्ती राजा था । तदनन्तर सत्कर्मों द्वारा बड़े-बड़े लोकों पर मैंने विजय प्राप्त की और उनमें एक हजार वर्षों तक निवास किया । इसके बाद उनसे भी उच्चतम लोक में जा पहुंचा। वहां सौ योजन विस्तृत और एक हजार दरवाजों से युक्त इन्द्र की रमणीय पुरी प्राप्त हुई। उसमें मैंने केवल एक हजार वर्षों तक निवास किया और उसके बाद उससे भी ऊंचे लोक में गया। तदनन्तर लोकपालों के लिये भी दुर्लभ प्रजापति के उस दिव्य लोक में जा पहुंचा, जहां जरावस्था का प्रवेश नहीं हैं। वहां एक हजार वर्ष तक रहा, फिर उससे भी उत्तम लोक में चला गया। वह देवाधिदेव ब्रह्माजी का धाम था। वहां मैं अपनी इच्छा के अनुसार भिन्न-भिन्न लोकों में विहार करता हुआ सम्पूर्ण देवताओं से सम्मानित होकर रहा । उस समय मेरा प्रभाव और तेज देवेश्वरों के समान था। इसी प्रकार मैं नन्दवन में इच्छानुसार रूप धारण करके अप्सराओं के साथ विहार करता हुआ दस लाख वर्षों तक रहा । वहां मुझे पवित्र गन्ध और मनोहर रूप वाले वृक्ष देखने को मिले, जो फूलों से लदे हुए थे। वहां रहकर मैं देवलोक के सुखों में आसक्त हो गया । तदनन्तर बहुत अधिक समय बीत जाने पर एक भयंकर रूपधारी देवदूत आकर मुझसे ऊंची आवाज में तीन बार बोला-‘गिर जाओ, गिर जाओ, गिर जाओ’। राजशिरोमणे ! मुझे इतना ज्ञात हो सका है। तदनन्तर पुण्य क्षीण हो जाने के कारण मैं नन्दन वन से नीचे गिर पड़ा। नरेन्द्र ! उस समय मेरे लिये शोक करने वाले देवताओं की अन्तरिक्ष में यह दया भरी वाणी सुनायी पड़ी। ‘अहो ! बड़े कष्ट की बात है कि पवित्र कीर्ति वाले ये पुण्य कर्मा महाराज ययाति पुण्य क्षीण होने के कारण नीचे गिर रहे हैं।‘ तब नीचे गिरते हुए मैंने उनसे पूछा- ‘देवताओं ! मैं साधु पुरुषों के बीच गिरूं, इसका क्या उपाय है !’ तब देवताओं ने मुझे आपकी यज्ञ भूमि का परिचय दिया। मैं इसी को देखता हुआ तुरंत यहां आ पहुंचा हूं। यज्ञभूमि का परिचय देने वाली हविष्य की सुगन्ध का अनुभव तथा धूमप्रान्त का अवलोकन करके मुझे बड़ी प्रसन्नता और सान्त्वना मिली है।
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