महाभारत आदि पर्व अध्याय 91 श्लोक 1-13
एकनवतितम (91) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
अष्टक ने पूछा- महाराज ! वेदज्ञ विद्वान् इस धर्म के अन्तर्गत बहुत-से कर्मों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का द्वार बताते हैं; अत: मैं पूछता हूं, आचार्य की सेवा करने वाला ब्रह्मचारी, गृहस्थ, सन्मार्ग में स्थित वानप्रस्थ और संन्यासी किस प्रकार धर्माचरण करके उत्तम लोक में जाता है? ययाति बोले- शिष्य को उचित है कि गुरु के बुलाने पर उसके समीप जाकर पढ़े। गुरु की सेवा में बिना कहे लगा रहे, रात में गुरुजी के सो जाने के बाद सोये और सबेरे उनसे पहले ही उठ जाय। वह मृदुल (विनम्र), जितेन्द्रिय, धैर्यवान, सावधान और स्वाध्याशील हो। इस नियम से रहने वाला ब्रह्मचारी सिद्धि पाता है। गृहस्थ पुरुष न्याय से प्राप्त हुए धन को पाकर उससे यज्ञ करे, दान दे और सदा अतिथियों को भोजन करावे। दूसरों की वस्तु उनके दिये बिना ग्रहण नहीं करे। यह गृहस्थ-धर्म का प्राचीन एवं रहस्यमय स्वरुप है। वानप्रस्थ मुनि वन में निवास करे। आहार और विहार को नियमित रक्खे। अपने ही पराक्रम एवं परिश्रम से जीवन निर्वाह करे, पाप से दूर रहे। दूसरों को दान दे और किसी को कष्ट न पहुंचावे। ऐसा मुनि परम मोक्ष को प्राप्त होता है। संन्यासी शिल्पकला से जीवन-निर्वाह न करे। शम, दम आदि श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हो। सदा अपनी इन्द्रियों को काबू में रक्खे। सबसे अलग रहे। गृहस्थ के घर में न सोये। परिग्रह का भार न लेकर अपने को हल्का रक्खे। थोड़ा-थोड़ा चले। अकेला ही अनेक स्थानों में भ्रमण करता रहे। ऐसा संन्यासी ही वास्तव में भिक्षु कहलाने योग्य है। जिस समय, रुप, रस आदि विषय तुच्छ प्रतीत होने लगें, इच्छानुसार जीत लिये जायं तथा उनके परित्याग में ही सुख जान पड़े, उसी समय विद्वान् पुरुष मन को वश में करके समस्त संग्रहों का त्याग कर वनवासी होने का प्रयत्न करे। जो वनवासी मुनि वन में ही अपने पञ्चभतात्मक शरीर का परित्याग करता है, वह दस पीढ़ी पूर्व के और दस पीढ़ी बाद के जाति-भाइयों को तथा इक्कीश वें अपने को भी पुण्य लोकों में पहुंचा देता है। अष्टक ने पूछा- राजन् ! मुनि कितने हैं? और मौन कितने प्रकार के हैं? यह बताइये, हम सुनना चाहते हैं। ययाति ने कहा- जनेश्वर ! अरण्य में निवास करते समय जिसके लिये ग्राम पीछे होता है, वह मुनि कहलाता है। अष्टक ने पूछा- अरण्य में निवास करने के लिये ग्राम और ग्राम में निवास करने के लिये अरण्य पीछे कैसे है? ययाति ने कहा- जो मुनि वन में निवास करता है और गांवों में प्राप्त होने वाली वस्तुओं का उपभोग नहीं करता, इस प्रकार वन में निवास करने वाले उस (वानप्रस्थ ) मुनि के लिये गांव पीछे समझा जाता है। जो अग्नि और गृह को त्याग चुका है, जिसका गोत्र और चरण ( वेद की शाखा एवं जाति) से भी सम्बन्ध नहीं रह गया है, जो मौन रहता और उतने ही वस्त्र की इच्छा रखता है जितने से लंगोटी का काम चल जाय; इसी प्रकार जितने से प्राणों की रक्षा हो सके उतना ही भोजन चाहता है; इस नियम से गांव में निवास करने वाले उस (संन्यासी) मुनि के लिये अरण्य पीछे समझा जाता है।
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