महाभारत आदि पर्व अध्याय 95 श्लोक 61-75
पञ्चनवतितम (95) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
‘देवियो ! अपनी चपलता के कारण मुझे यह शाप मिला है। सुनता हूं, संतान हीन को पुण्यलोक नहीं प्राप्त होते हैं। अत: तुम मेरे लिये पुत्र उत्पन्न करो। ‘यह बात उन्होंने कुन्ती से कही। उनके ऐसा करने पर कुन्ती ने तीन पुत्र उत्पन्न किये- धर्मराज से युधिष्ठिर को, वायुदेव से भीमसेन को और इन्द्र से अर्जुन को जन्म दिया। इससे पाण्डु को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कुन्ती से कहा- ‘यह तुम्हारी सौत माद्री तो संतान हीन ही रह गयी, इसके गर्भ से भी सुन्दर संतान उत्पन्न होने की व्यवस्था करो। ‘ऐसा ही हो’ कहकर कुन्ती ने अपनी वह विद्या ( जिससे देवता आकृष्ट होकर चले आते थे) माद्री को भी दे दी। माद्री के गर्भ से अश्विनीकुमारों ने नकुल और सहदेव को उत्पन्न किया। एक दिन माद्री को श्रंगार किये देख पाण्डु उसके प्रति आसक्त हो गये और उनका स्पर्श होते ही उनका शरीर छूट गया। तदनन्तर वहां चिता की आग में स्थित पति के शव के साथ माद्री चिता पर आरूढ़ हो गयी और कुन्ती से बोली-‘बहिन ! मेरे जुड़वें बच्चों के भी लालन-पालन में तुम सदा सावधान रहना’। इसके बाद तपस्वी मुनियों ने कुन्तीसहित पाण्डवों को वन से हस्तिनापुर में लाकर भीष्म तथा विदुरजी को सौंप दिया। साथ ही समस्त प्रजावर्ग के लोगों को भी सारे समाचार बताकर वे तपस्वी उन सब के देखते-देखते वहां से अन्तर्धान हो गये। उन ऐश्वर्यशाली मुनियों की बात सुनकर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और देवताओं की दुन्दुभियां बज उठीं। भीष्म और धृतराष्ट्र के द्वारा अपना लिये जाने पर पाण्डवों ने उनसे अपने पिता की मृत्यु का समाचार बताया, तत्पश्चात् पिता की और्घ्वदैहिक क्रिया को विधि पूर्वक सम्पन्न करके पाण्डव वहीं रहने लगे। दुर्योधन को बाल्यावस्था से ही पाण्डवों का साथ रहना सहन नहीं हुआ। पापाचारी दुर्योधन राक्षसी बुद्धि का आश्रय ले अनेक उपायों से पाण्डवों की जड़ उखाड़ने का प्रयत्न करता रहता था। परंतु जो होने वाली बात है, वह होकर ही रहती है; इसलिये दुर्योधन आदि पाण्डवों को नष्ट करने में सफल न हो सके। इसके बाद धृतराष्ट्र ने किसी बहाने से पाण्डवों को जब वारणावत नगर में जाने के लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने वहां से जाना स्वीकार कर लिया। वहां भी उन्हें लाक्षाग्रह में जला डालने का प्रयत्न किया गया; किंतु पाण्डवों के विदुरजी की सलाह के अनुसार काम करने के कारण विरोधी लोग उनको दग्ध करने में समर्थ न हो सके। पाण्डव वारणावत से अपेन को छिपाते हुए चल पड़े और मार्ग में हिडिम्ब राक्षस का वध करके वे एकचक्रा नगरी में पहुंचे। एकचक्रा में भी बक नाम वाले राक्षस का संहार करके वे पाञ्चाल नगर में चले गये। वहां पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरुप में प्राप्त किया और फिर अपनी राजधानी हस्तिनापुर में लौट आये।
« पीछे | आगे » |