महाभारत आदि पर्व अध्याय 95 श्लोक 42-60
पञ्चनवतितम (95) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
परिक्षित् के बाहुदराज की पुत्री सुयशा के साथ विवाह किया: जिससे उनके भीमसेन नामक पुत्र हुआ। भीमसेन ने केकयदेश की राजकुमारी कुमारी को अपनी पत्नी बनाया; जिसके गर्भ से प्रतिश्रवा का जन्म हुआ। प्रतिश्रवा से प्रतीप उत्पन्न। उसने शिवि देश की राजकन्या सुनन्दा से विवाह किया और उसके गर्भ से देवापि, शान्तनु तथा वाह्रीक-इन तीन पुत्रों को जन्म दिया। देवापि बाल्यवस्था में ही वन को चले गये, अत: शान्तनु राजा हुए। शान्तनु के विषय में यह अनुवंश श्लोक उपलब्ध होता है- वे जिस-जिस बूढ़े को अपने दोनों हाथों से छू देते थे, वह बड़े सुख और शान्ति का अनुभव करता था तथा पुन: नौजवान हो जाता था। इसीलिये ये लोग उन्हें शान्तनु के रुप में जानने लगे। यही उनके शान्तनु नाम पड़ने का कारण हुआ। शान्तनु ने भागीरथी गंगा को अपनी पत्नी बनाया; जिसके गर्भ से उन्हें देवव्रत नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसे लोग ‘भीष्म’ कहते हैं। भीष्म ने अपने पिता का प्रिय करने की इच्छा से उनके साथ माता सत्यवती का विवाह कराया; जिसे गन्धकाली भी कहते हैं। सत्यवती के गर्भ से पहले कन्यावस्था में महर्षि पराशर से दैयापन व्यास उत्पन्न हुए थे। फिर उसी सत्यवती के राजा शान्तनु द्वारा दो पुत्र और हुए। जिनका नाम था, विचित्रवीर्य और चित्रांगद। उनमें से चित्रांगद युवावस्था में पदार्पण करने से पहले ही एक गन्धर्व के द्वारा मारे गये; परंतु विचित्रवीर्य राजा हुए। विचित्रवीर्य ने अम्बिका और अम्वालिका से विवाह किया। वे दोनों काशिराज की पुत्रियां थीं और उनकी माता का नाम कौसल्या था। विचित्रवीर्य के अभी कोई संतान नहीं हुई थी, तभी उनका देहवसान हो गया। तब सत्यवती को यह चिन्ता हुई कि ‘राजा दुष्यन्त का यह वंश नष्ट न हो जाय’। उसने मन-ही-मन द्वैयापन महर्षि व्यास का चिन्तन किया। फिर तो व्यासजी उसके आगे प्रकट हो गये और बोले- ‘क्या आज्ञा है?’ सत्यवती ने उनसे कहा- ‘बेटा ! तुम्हारे भाई विचित्रवीर्य संतानहीन अवस्था में ही स्वर्गवासी हो गये। अत: उनके वंश की रक्षा के लिये उत्तम संतान उत्पन्न करो’। उन्होंने ‘तथास्तु‘ कहकर धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर- इन तीन पुत्रों को उत्पन्न किया। उनमें से राजा धृतराष्ट्र के गान्धारी के गर्भ से व्यासजी के दिये हुए वरदान के प्रभाव से सौ पुत्र हुए। धृतराष्ट्र के उन सौ पुत्रों में चार प्रधान थे- दुर्योधन, दु:शासन, विकर्ण और चित्रसेन। पाण्डुकी दो पत्नियां थीं; कुन्तिभोज की कन्या पृथा और माद्री ये दोनों ही स्त्रियों में रत्नस्वरुपा थीं। एक दिन राजा पाण्डु ने शिकार खेलते समय एक मृग रुपधारी ॠषि को मृगी रुपधारिणी अपनी पत्नी के साथ मैथुन करते देखा। वह अद्भुत मृग अभी काम-रस का आस्वादन नहीं कर सका था। उसे अतृप्त अवस्था में ही राजा ने वाण से मार दिया। वाण से घायल होकर उस मुनि ने पाण्डु से कहा- ‘राजन् ! तुम भी इस मैथुन धर्म का आचरण करने वाले तथा काम-रस के ज्ञाता हो, तो भी तुमने मुझे उस दशा में मारा है, जब कि मैं काम-रस से तृप्त नहीं हुआ था। इस कारण इसी अवस्था में पहुंचकर काम-रस का आस्वादन करने से पहले ही शीघ्र मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।‘ यह सुनकर राजा पाण्डु उदास हो गये और शाप का परिहार करते हुए पत्नियों के सहवास से दूर रहने लगे। उन्होंने कहा।
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