महाभारत आदि पर्व अध्याय 98 श्लोक 1-14
अष्टनवतितम (98) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
शान्तनु और गंगा का कुछ शर्तों के साथ सम्बन्ध, वसुओं का जन्म और शाप से उद्धार तथा भीष्म की उत्पत्ति वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! राजा शान्तनु का मधुर मुस्कान युक्त मनोहर वचन सुनकर यशस्विनी गंगा उनकी ऐश्वर्य-वृद्धि के लिये उनके पास आयीं। तटपर विचरते हुए उन नृपश्रेष्ठ को देखकर सती साध्वी गंगा को वसुओं को दिये हुए वचन का स्मरण हो आया। साथ ही राजा प्रतीप की बात भी याद आ गयी। तब यही उपयुक्त समय है, ऐसा मानकर वसुओं को मिले हुए शाप से प्रेरित हो वे स्वयं संतानोत्पादन की इच्छा से पृथ्वीपति महाराज शान्तनु के समीप चली आयीं और अपनी मधुर वाणी से महाराज के मन को आनन्द प्रदान करती हुई बोलीं- ‘भूपाल ! मैं आपकी महारानी बनूंगी एवं आपके अधीन रहूंगी। ‘( परंतु एक शर्त है- ) राजन् ! मैं भला या बुरा जो कुछ भी करूं, उसके लिये आपको मुझे नहीं रोकना चाहिये और मुझसे कभी अप्रिय वचन भी नहीं कहना चाहिये। ‘पृथ्वीपते ! ऐसा बर्ताव करने पर ही मैं आपके समीप रहूंगी। यदि आपने कभी मुझे किसी कार्य से रोका या अप्रिय वचन कहा तो मैं निश्चय ही आपका साथ छोड़ दूंगी। भरतश्रेष्ठ ! उस समय ‘बहुत अच्छा’ कहकर राजा ने जब उसकी शर्त मान ली, तब उन नृपश्रेष्ठ को पतिरुप में प्राप्त करके उस देवी को अनुपम आनन्द मिला। तब राजा शान्तनु देवी गंगा को रथ पर बिठाकर उनके साथ अपनी राजधानी को चले गये। साक्षात् दूसरी लक्ष्मी के समान सुशोभित होने वाली गंगादेवी शान्तनु के साथ गयीं। इन्द्रियों को वश में रखने वाले राजा शान्तनु उस देवी को पाकर उसका इच्छानुसार उपभोग करने लगे। पिता का यह आदेश था कि उससे कुछ पूछना मत; उनकी आज्ञा मानकर राजा ने उससे कोई बात नहीं पूछी। उसके उत्तम शील-स्वभाव, सदाचार, रुप, उदारता, सद्गुण तथा एकान्त सेवा से महाराज शान्तनु बहुत संतुष्ट रहते थे। त्रिपथगामिनी दिव्यरूपिणी दवी गंगा ही अत्यन्त सुन्दर मनुष्य-देह धारण करके देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी नृपशिरोमणि महाराज शान्तनु को, जिन्हें भाग्य से इच्छानुसार सुख अपने-आप मिल रहा था, सुन्दरी पत्नी के रुप में प्राप्त हुई थीं। गंगादेवी हाव-भाव से युक्त सम्भोग-चातुरी और प्रणय चातुरी राजा को जैसे-जैसे रमातीं, उसी-उसी प्रकार वे उनके साथ रमण करते थे। उस दिव्यनारी के उत्तम गुणों ने चित्त को चुरा लिया था; अत: वे राजा उसके साथ रति-भोग में आसक्त हो गये। कितने ही वर्ष ॠतु और मास व्यतीत हो गये किंतु उसमें आसक्त होने के कारण राजा को कुछ पता न चला। उसके साथ इच्छानुसार रमण करते हुए महाराज शान्तनु ने उसके गर्भ से देवताओं के समान तेजस्वी आठ पुत्र उत्पन्न किये। भारत ! जो-जो उत्पन्न होता, उसे वह गंगाजी के जल में फेंक देती और कहती- ‘( वत्स ! इस प्रकार शाप से मुक्त करके ) मैं तुम्हें प्रसन्न कर रही हूं। ‘ऐसा कहकर गंगा प्रत्येक बालक को धारा में डुबों देती थी। पत्नी का यह व्यवहार राजा शान्तनु को अच्छा नहीं लगता था, तो भी वे उस समय उससे कुछ नहीं कहते थे। राजा को यह डर बना हुआ था कि कहीं वह मुझे छोड़कर चली न जाय।
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