महाभारत आदि पर्व अध्याय 98 श्लोक 15-24
अष्टनवतितम (98) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
तदनन्तर जब आठवां पुत्र उत्पन्न हुआ, तब हंसती हुई-सी अपनी स्त्री से राजा ने अपने पुत्र का प्राण बचाने की इच्छा से दु:खातुर होकर कहा-‘अरी ! इस बालक का वध न कर, तू किसकी कन्या है? कौन है? क्यों अपने ही बेटों को मारे डालती है। पुत्रघातिनि ! तुझे पुत्र हत्या का यह अत्यन्त निन्दित और भारी पाप लगा है’। स्त्री बोली- पुत्र की इच्छा रखने वाले नरेश ! तुम पुत्रवानों में हो। मैं तुम्हारे इस पुत्र को नहीं मारुंगी; परंतु यहां मेरे रहने का समय अब समाप्त हो गया; जैसी कि पहले ही शर्त हो चुकी है। मैं जह्रु की पुत्री और महर्षिं द्वारा सेवित गंगा हूं। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये तुम्हारे साथ रह रही थी। ये तुम्हारे आठ पुत्र महा तेजस्वी महाभाग वसु देवता हैं। वसिष्ठजी के शाप-दोष से ये मनुष्य-योनि में आये थे। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई राजा इस पृथ्वी पर ऐसा नहीं था, जो उन वसुओं का जनक हो सके। इसी प्रकार इस जगत् में मेरी-जैसी दूसरी कोई मानवी नहीं हैं, जो उन्हें गर्भ में धारण कर सके। अत: इन वसुओं की जननी होने के लिये मैं मानव शरीर धारण करके आयी थी। राजन् ! तुमने आठ वसुओं को जन्म देकर अक्षय लोक जीत लिये हैं। वसु देवताओं की यह शर्त थी और मैंने उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा का ली थी कि जो-जो वसु जन्म लेगा, उसे मैं जन्मते ही मनुष्य–योनि से छुटकारा दिला दूंगी। इसलिये अब वे वसु महात्मा आपव (वसिष्ठ) के शाप से मुक्त हो चुके हैं। तुम्हारा कल्याण हो, जब मैं जाऊंगी । तुम इस महान् व्रतधारी पुत्र का पालन करो। यह तुम्हारा पुत्र सब वसुओं के पराक्रम से सम्पन्न होकर अपने कुल का आनन्द बढ़ाने के लिये प्रकट हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि यह बालक बल और पराक्रम में दूसरे सब लोगों से बढ़कर होगा। यह बालक वसुओं में से प्रत्येक के एक-एक अंश का आश्रय है- सम्पूर्ण वसुओं के अंश से इसकी उत्पत्ति हुई है, मैंने तुम्हारे लिये वसुओं के समीप प्रार्थना की थी कि ‘राजा का एक पुत्र जीवित रहे’। इसे मेरा बालक समझना और इसका नाम ‘गंगादत्त’ रखना।
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