महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-19

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-19 का हिन्दी अनुवाद

जल – दान, अन्‍न – दान और आतिथि – सत्‍कार का माहात्‍मय

वैशम्‍पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! यमपुर के मार्ग का वर्णन तथा वहां जीवों के ( सुखपूर्वक ) जाने का उपाय सुनकर राजा युधिष्‍ठिर मन – ही – मन बहुत प्रसन्‍न हुए और भगवान् श्रीकृष्‍ण से बोले – ‘देवदेवेश्‍वर ! आप सम्‍पूर्ण दैत्‍यों का वध करने वाले हैं, ऋषियों के समुदाय सदा आपकी ही स्‍तुति करते हैं, आप षडैश्‍वर्य से युक्‍त, भव बन्‍धन से मुक्‍ति देने वाले, श्रीसम्‍पन्‍न और हजारों सूर्यों के समान तेजस्‍वी हैं। ‘धर्मज्ञ ! आप ही से सबकी उत्‍पत्‍ति हुई है और आप ही सम्‍पूर्ण धर्मों के प्रवर्तक हैं । शान्‍त स्‍वरूप अच्‍युत ! मुझे सब प्रकार के दानों का फल बतलाइये। बुद्धिमान् धर्मपुत्र युधिष्‍ठिर के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्‍ण धर्मपुत्र के प्रति महान् उन्‍नति करने वाले पुण्‍यमय धर्मों का वर्णन करने लगे - ‘पाण्‍डुनन्‍दन ! संसार में जल को प्राणियों का परम जीवन माना गया है, उसके दान से जीवों की तृप्‍ति होती है । जल के गुण दिव्‍य हैं और वे परलोक में भी लाभ पहुंचाने वाले हैं। ‘राजेन्‍द्र ! यमलोक में पुष्‍पोद की नाम वाली परम पवित्र नदी है । वह जल – दान करने वाले पुरुषों की सम्‍पूर्ण कामनाएं पूर्ण करती है। ‘उसका जल ठण्‍डा, अक्षय और अमृत के समान मधुर है तथा वह ठंडे जल का दान करने वाले लोगों को सदा सुख पहुंचाता है। ‘युधिष्‍ठिर ! जल पीने से भूख भी शान्‍त हो जाती है ; प्‍यासे मनुष्‍य की प्‍यास अन्‍न से नहीं बुझती, इसलिये समझदार मनुष्‍य को चाहिये कि वह प्‍यासे को सदा पानी पिलाया करे। ‘जल अग्‍नि की मूर्ति है, पृथ्‍वी की योनि ( कारण ) है और अमृत का उत्‍पत्‍ति स्‍थान है । इसलिये समस्‍त प्राणियोंका मूल जल है – ऐसा बुद्धिमान् पुरुषों ने कहा। ‘सब प्राणी जल से पैदा होते हैं और जल से ही जीवन धारण करते हैं । इसलिये जलदान सब दानों से बढ़कर माना गया है। ‘भरतश्रेष्‍ठ ! जो लोग ब्राह्मणों को सुपक्‍व अन्‍न दान करते हैं, वे मानों साक्षात् प्राण – दान करते हैं। ‘पाण्‍डुनन्‍दन् ! अन्‍न से रक्‍त और वीर्य उत्‍पन्‍न होता है । अन्‍न में ही जीव प्रतिष्‍ठित होता है । अन्‍न से ही इन्‍द्रयों का और बुद्धि का सदा पोषण होता है । बिना अन्‍न के समस्‍त प्राणी दु:खित हो जाते हैं। ‘तेज, बल, रूप, सत्‍व, वीर्य, धृति, द्युति, ज्ञान, मेधा और आयु – इन सबका आधार अन्‍न ही है। ‘समस्‍त लोकों में सदा रहने वाले देवता, मनुष्‍य और तिर्यक् योनि के प्राणियों में सब समय सब के प्राण अन्‍न में ही प्रतिष्‍ठित हैं। ‘अन्‍न प्रजापति का रूप है । अन्‍न ही उत्‍पत्‍ति का कारण है । इसलिये अन्‍न सर्वभूतमय है और समस्‍त जीव अन्‍नमय माने गये हैं। ‘प्राण, अपान, व्‍यान, उदान और समान – ये पांचों प्राण अन्‍न के ही आधार पर रहकर देहधारियों को धारण करते हैं। ‘सम्‍पूर्ण प्राणियों द्वारा किये जाने वाले सोना, उठना, चलना, ग्रहण करन, खींचना आदि कर्म अन्‍न से चलते हैं। ‘राजेन्‍द्र ! चारों प्रकार के चराचर प्राणी, जो यह प्रजापति की सृष्‍टि है, अन्‍न से ही उत्‍पन्‍न होते हैं। ‘समस्‍त विद्यालय और पवित्र बनाने वाले सम्‍पूर्ण यज्ञ अन्‍न से ही चलते हैं । इसलिये अन्‍न सबसे श्रेष्‍ठ माना गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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