महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-20
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
‘रूद्र आदि देवता, पितर और अग्नि अन्न से ही संतुष्ट होते हैं ; इसलिये अन्न सबसे बढ़कर है। ‘शक्तिशाली प्रजापति ने प्रत्येक कल्प में अन्न से ही सारी प्रजा सृष्टि की है ; इसलिये अन्न से बढ़कर न कोई दान हुआ है और न होगा। ‘पाण्डुनन्दन ! धर्म, अर्थ और काम का निर्वाह अन्न से ही होता है । अत: इस लोक या परलोक में अन्न से बढ़कर कोई दान नहीं है। ‘यक्ष, राक्षस, ग्रह, नाग, भूत और दानव भी अन्न से ही संतुष्ट होते हैं ; इसलिये अन्न का महत्व सबसे बढ़कर है। ‘राजन् ! जो मनुष्य दम्भ और असत्य का परित्याग करके मुझमें परम भक्ति रखकर रसोई में भेद न करते हुए दरिद्र एवं श्रोत्रिय ब्राह्मण को एक वर्ष तक अपने द्वारा धर्मपूर्वक उपार्जित अन्न का दान करता है, उसके पुण्य के फल को सुनो। ‘वह एक लाख वर्ष तक बड़े सम्मान के साथ देवलोक में निवास करता है तथा वहां इच्छानुसार रूप धारण करके यथेष्ट विचरता रहता है एवं अप्सराओं का समुदाय उसका सत्कार करता है । फिर समयानुसार पुण्य क्षीण हो जाने पर वह जब वह स्वर्ग से नीचे उतरता है, तब मनुष्य लोक में ब्राह्मण होता है । ‘जो छ: महीने या वार्षिक श्राद्ध पर्यन्त प्रतिदिन की पहली भिक्षा दरिद्र ब्राह्मण को देता है, उसका पुण्यफल सुनो। ‘एक हजार गोदान का जो पुण्य फल बताया गया है, वह उसी पुण्य के समान फल पाता है , इसमें संशय नहीं है। ‘पाण्डुनन्दन ! देश – काल के अनुसार प्राप्त एवं रास्ता चलकर थके – मांदे आये हुए भूखे और अन्न चाहने वाले ब्राह्मण को अन्न – दान करना चाहिये। ‘जो दूर का रास्ता तय करने के कारण दुर्बल तथा भूख – प्यास और परिश्रम से थका – मांदा हो, जिसके पैर बड़ी कठिनता से आागे बढ़ते हों तथा जो बहुत पीड़ित हो रहा हो, ऐसा ब्राह्मण अन्न दाता का पता पूछता हुआ धूल से भरे पैरों से यदि घर पर आकर अन्न की याचना करे तो यत्न पूर्वक उसकी पूजा करनी चाहिये ; क्योंकि संतुष्ट होने पर सम्पूर्ण देवता संतुष्ट हो जाते हैं। ‘पार्थ ! अतिथि की पूजा करने से अग्नि देव को जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी हविष्य से होम करने और फूल तथा चन्दन चढ़ाने से भी नहीं होती। ‘पाण्डवश्रेष्ठ ! देवता के ऊपर चढ़ी हुई पत्र – पुष्प आदि पूजन – साम्रगी को हटाकर उस स्थान को साफ करना, ब्राह्मण के जूठे किये हुए बर्तन और स्थान को मांज – धो देना, थके हुए ब्राह्मण के पैर दबाना, उसके चरण धोना, उसे रहने के लिये घर, सोने के लिये शय्या और बैठने के लिये आसन देना – इनमें से एक – एक कार्य का महत्व गोदान से बढ़कर है। ‘जो मनुष्य ब्राह्मणों को पैर धोने के लिये जल, पैर में लगाने के लिये घी, दीपक, अन्न और रहने के लिये घर देते हैं, वे कभी यमलोक में नहीं जाते। ‘शत्रुदमन ! राजन् ! ब्राह्मण का अतिथि सत्कार तथा भक्ति पूर्वक उसकी सेवा करने से समस्त तैंतीसों देवताओं की सेवा हो जाती है। ‘पहले का परिचित मनुष्य यदि घर पर आवे तो उसे अभ्यागत कहते हैं और अपरिचित पुरुष अतिथि कहलाता है।
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