महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-21

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-21 का हिन्दी अनुवाद

द्विजों को दोनों की ही पूजा करनी चाहिये । यह पंचम वेद – पुराण की श्रुति है। ‘राजेन्‍द्र ! जो मनुष्‍य अतिथि के चरणों में तेल मलकर, उसे भोजन कराकर और पानी पिलाकर उसकी पूजा करता है, उसके द्वारा मेरी भी पूजा हो जाती है – इसमें संशय नहीं है। ‘वह मनुष्‍य तुरंत सब पापों से छुटकारा पा जाता है और मेरी कृपा से चन्‍द्रमा के समान उज्‍जवल विमान पर आरूढ़ होकर मेरे परमधाम को पधारता है। ‘थका हुआ अभ्‍यागत जब घर पर आता है, तब उसके पीछे – पीछे समस्‍त देवता, पितर और अग्‍नि भी पदार्पण करते हैं । यदि उस अभ्‍यागत द्विज की पूजा हुई तो उसके साथ उन देवता आदि की भी पूजा हो जाती है और उसके निराश लौटने पर वे देवता, पितर आदि भी हताश हो जाते हैं। ‘जिसके घर से अतिथि को निराश होकर लौटना पड़ता है, उसके पितर पंद्रह वर्षों तक भोजन नहीं करते। ‘जो देश – काल के अनुसार घर पर आये हुए ब्राह्मण को वहां से बाहर कर देता है, वह तत्‍काल पतित हो जाता है – इसमें संदेह नहीं है। ‘यदि देश – काल के अनुसार अन्‍न की इच्‍छा से चाण्‍डाल भी अतिथि के रूप में आ जाय जो गृहस्‍थ पुरुष को सदा उसका सत्‍कार करना चाहिये। ‘जो अतिथि का सत्‍कार नहीं, उसका ऊनी वस्‍त्र ओढ़ना, अपने लिये रसोई बनवाना और भोजन करना– सब कुछ निश्‍चय ही व्‍यर्थ है। ‘जो प्रतिदिन सांगोपांग वेदों का स्‍वाध्‍याय करता है, किंतु अतिथि की पूजा नहीं, उस द्विज का जीवन व्‍यर्थ है। ‘जो लोग पाक–यज्ञ, पंचमहायज्ञ तथा सोमयाग आदि के द्वारा यजन करते हैं, परंतु घर पर आये हुए अतिथि का सत्‍कार नहीं करते, वे यश की इच्‍छा से जो कुछ दान या यज्ञ करते हैं, वह सब व्‍यर्थ हो जाता है । अतिथि की मारी गयी आशा मनुष्‍य के समस्‍त शुभ-कर्मों का नाश कर देती है। ‘इसलिये श्रद्धालु होकर देश, काल, पात्र और अपनी शक्‍ति का विचार करके अल्‍प, मध्‍यम अथवा महान रूप में अतिथि–सत्‍कार अवश्‍य करना चाहिये।‘ जब अतिथि अपने द्वार पर आवे, तब बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह प्रसन्‍नचित्‍त होकर हंसते हुए मुख से अतिथि का स्‍वागत करे तथा बैठने को आसन और चरण धोने के लिये जल देकर अन्‍न-पान आदि के द्वारा उसकी पूजा करे। ‘अपना हितैषी, प्रेमपात्र, द्वेषी, मूर्ख अथवा पण्‍डित–जो कोई भी बलिवैश्‍वदेव के बाद आ जाय, वह स्‍वर्गतक पहुचाने वाला अतिथि है। ‘जो यज्ञ का फल पाना चाहता हो, वह भूख–प्‍यास और परिश्रम से दु:खी तथा देश–काल के अनुसार प्राप्‍त हुए अतिथि को सत्‍कार पूर्वक अन्‍न प्रदान करे। ‘यज्ञ और श्राद्ध में अपने से श्रेष्‍ठ पुरुष को विधिवत् भोजन कराना चाहिये । अन्‍न मनुष्‍यों का प्राण है, अन्‍न देने वाला प्राणदाता होता है ; इसलिये कल्‍याण की इच्‍छा रखने वाले पुरुष को विशेष रूप से अन्‍न–दान करना चाहिये। ‘अन्‍न प्रदान करने वाला मनुष्‍य सब भोगों से तृप्‍त होकर भली भांति आभूषणों सं सम्‍पन्‍न हुआ पूर्ण चन्‍द्रमा के प्रकाश से प्रकाशित विमान द्वारा देवलोक में जाता है। वहां सुन्‍दर स्‍त्रियों द्वारा उसकी सेवा की जाती है। ‘वहां करोड़ वर्षों तक देवताओं के समान भोग भोगने के बाद समय पर वहां से गिरकर यहां महायशस्‍वी और वेदशास्‍त्रों के अर्थ और तत्‍व को जानने वाला भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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