महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-25

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-25 का हिन्दी अनुवाद

जो द्वादशाक्षर मन्‍त्र (ऊं नमो भगवते वासुदेवाय) का तत्‍वज्ञ है, जो चतुर्व्‍यूह के विभाग को जानने वाला है एवं जो दोष रहित रहकर पांचों समय की उपासनाओं का ज्ञाता है, वह ब्राह्मण दूसरों का भी उद्धारकर देता है। वैशम्‍पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! भगवान श्रीकृष्‍ण के द्वारा क्रम से दान और धर्म की बात कही जाने पर युधिष्‍ठिर तृप्‍त न होकर फिर भगवान केशव से कहने लगे-‘सुरश्रेष्‍ठ ! देवेश्‍वर ! परंतप माधव ! आपके मुंह से इस धर्ममय अमृत का श्रवण करते हुए मुझे तृप्‍ति नहीं होती है। ‘सुरश्रेष्‍ठ ! जो अन्‍य प्रकार के दान हैं, जिनको अभी तक आपने नहीं बताया है, उनका वर्णन कीजिये और क्रमश: उनका फल भी बताने की कृपा कीजिये’। श्रीभगवान् ने कहा–पाण्‍डुनन्‍दन ! जो मनुष्‍य भक्‍ति के साथ वस्‍त्र, माला और चन्‍दन चढ़ाकर ब्राह्मण की पूजा करता है तथा उसे भांति – भांति के अन्‍न का भोजन कराकर बिछौने सहित शैय्या दान करता है, उसका पुण्‍य फल सुनो। पाण्‍डुनन्‍दन ! विधिवत् किये हुए गोदान का जो पुण्‍य होता है, उस पुण्‍य को प्राप्‍त करके वह पितृ लोक में सम्‍मान पाता है। तथा एक हजार अग्‍निहोत्री ब्राह्मणों का पूजन करने से जो फल मिलता है, उसी पुण्‍य – फल को वह प्राप्‍त करता है, जो शय्या का दान करता है। जो मनुष्‍य ब्राह्मण को शिल्‍प, वेद, मन्‍त्र, ओषधि आदि विद्याओं का दान करता है, उसके पुण्‍य फल को सुनो। वह वेद मन्‍त्रों के बल से चलने वाले सुन्‍दर विमान पर आरूढ़ हो सप्‍तर्षियों के लोक में जाता और वहां ब्रह्मवादी महर्षियों से पूजित होता है। उस लोक में तीस चतुर्युगी तक देवताओं की भांति क्रीड़ा करके वह मनुष्‍य लोक में वेदवेत्‍ता ब्राह्मण होता है। राजन् ! जो रास्‍ते के थके – मांदे दुर्बल ब्राह्मण को विश्राम देता है, उसका एक वर्ष का किया हुआ पाप तत्‍काल नष्‍ट हो जाता है। तदनन्‍तर जब वह भक्‍ति पूर्वक उस अतिथि के दोनों चरणों को जल से पखारता है, उस समय उसके दस वर्ष के किये हुए पाप नि:संदेह नष्‍ट हो जाते हैं। तथा यदि वह उसके दोनों पैरों में घी या तेल मलकर उसकी पूजा करता है तो उसके बारह वर्षों के पाप तुरंत नष्‍ट हो जाते हैं। राजन् ! जो घर पर आये हुए ब्राह्मण का स्‍वागत करके उसे आसन और अभ्‍युत्‍थान देकर पूजन करता है, वह देवताओं का प्रिय होता है। महाराज ! अतिथि के स्‍वागत से अग्‍नि, उसे आसन देने से इन्‍द्र और अगवानी करने से अतिथियों पर प्रेम रखने वाले पितर प्रसन्‍न होते हैं। नरेश्‍वर ! इस प्रकार अग्‍नि, इन्‍द्र और पितरों के प्रसन्‍न होने पर मनुष्‍य का एक वर्ष का पाप तत्‍काल नष्‍ट हो जाता है। जो मनुष्‍य ब्राह्मण को मालाओं से विभूषित आसन प्रदान करता है, वह मणियों से चित्रित रथ के द्वारा इन्‍द्र लोक में जाता है। वहां इन्‍द्रासन पर दिव्‍य स्‍त्रियों के साथ शोभा पाता है और साठ हजार वर्षों तक अप्‍सरागणों के साथ क्रीड़ा करता है। युधिष्‍ठिर ! जो मनुष्‍य ब्राह्मण को सवारी दान करता है, वह रत्‍नों से चित्रित विमान पर बैठकर स्‍वर्गलोक को जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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