महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-30

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-30 का हिन्दी अनुवाद

तत्‍पश्‍चात् ‘हं स: शुचिषत्’ इस मंत्र को पढ़कर सूर्य की ओर देखे और प्रदक्षिणा पूर्वक उन्‍हें नमस्‍कार करे। इस प्रकार संध्‍योपासन समाप्‍त होने पर क्रमश: ब्रह्माजी का, मेरा, शंकर जी का, प्रजापति का, देवताओं और देवर्षियों का, अंग सहित वेदों, इतिहासों, यज्ञों और समस्‍त पुराणों का, अप्‍सराओं का, ऋतु – कलाकाष्‍ठारूप संवत्‍सर तथा भूत समुदायों का, भूतों का, नदियों और समुद्रों का तथा पर्वतों, उन पर रहने वाले देवताओं, ओषधियों और वनस्‍पतियों का जल से तर्पण करे । तर्पण के समय जनेऊ को बायें कंधे पर रखे तथा दायें और बायें हाथ की अंजलि से जल देते हुए उपर्युक्‍त देवताओं में से प्रत्‍येक का नाम लेकर ‘तृप्‍यताम्’ पद का उच्‍चारण करे (यदि दो या अधिक देवताओं को एक साथ जल दिया जाय तो क्रमश: द्विवचन और बहुवचन – ‘तृप्‍येताम्’ और तृन्‍यन्‍ताम्’ इन पदों का उच्‍चारण करना चाहिय)। विद्वान पुरुष को चाहिये कि मन्‍त्रद्रष्‍टा मरीची आदि तथा नारद आदि ऋषियों को निवीत होकर अर्थात् जनेऊ को गले में माला की भांति पहन करके एकाग्रचित्‍त से तर्पण करे। इसके बाद जनेऊ को दाहिने कंधे पर करके आगे बताये जाने वाले पितृ – सम्‍बन्‍धी देवताओं एवं पितरों का तर्पण करे । कव्‍यवाट्, अग्‍नि, सोम, वैवस्‍वत, अर्यमा, अग्‍निष्‍वात्‍त और सोमप – ये पितृ – सम्‍बन्‍धी देवता हैं । इनका तिल सहित जल से कुशाओं पर तर्पण करे और ‘तृप्‍यताम्’ पद का उच्‍चारण करे । तदनन्‍तर पितरों का तर्पण आरम्‍भ करे। उनका क्रम इस प्रकार है –पिता, पितामह और प्रपितामह तथा अपनी माता, पितामही और प्रपितामही ! इनके सिवा गुरु, आचार्य, पितृष्‍वसा (बुआ), मातृष्‍वसा (मौसी), मातामही, उपाध्‍याय, मित्र, बन्‍धु, शिष्‍य, ऋत्‍विज् और जाति – भाई आदि में से भी जो मर गये हों, उन पर दया करके ईर्ष्‍या - द्वेष त्‍यागकर उनका भी तर्पण करना चाहिये। तर्पण पश्‍चात् आचमन करके स्‍नान के समय पहने हुए वस्‍त्र को निचोड़ डाले । उस वस्‍त्र का जल भी कुल के मरे हुए संतानहीन पुरुषों का भाग है । वह उनके स्‍नान करने और पीने के काम आता है । अत: उस जल से उनका तर्पण करना चाहिये, ऐसा विद्वानों का कथन है । पूर्वोक्‍त देवताओं तथा पितरों का तर्पण किये बिना स्‍नान का वस्‍त्र नहीं धोना चाहिये । जो मोहवश तर्पण के पहले ही धौत वस्‍त्र को धो लेता है, वह ऋषियों और देवताओं को कष्‍ट पहुंचाता है। उस अवस्‍था में उसके पितर उसे शाप देकर निराश लौट जाते हैं, इसलिये तर्पण के पश्‍चात् आचमन करके ही स्‍नान – वस्‍त्र निचोड़ना चाहिये। तर्पण की क्रिया पूर्ण होने पर दोनों पैरों में मिट्टी लगाकर उन्‍हें धो डाले और फिर आचमन करके पवित्र हो कुशासन पर बैठ जाय और हाथों में कुशा लेकर स्‍वाध्‍याय आरम्‍भ करे। पहले वेद का पाठ करके फिर कम से उसके अन्‍य अंगों का अध्‍ययन करे । अपनी शक्‍ति के अनुसार प्रतिदिन जो अध्‍ययन किया जाता है, उसको स्‍वाध्‍याय कहते हैं। ऋग्‍वेद, यजुर्वेद और सामवेद का स्‍वाध्‍याय करे । इतिहास और पुराणों के अध्‍ययन को भी यथाशक्‍ति न छोड़े। स्‍वाध्‍याय पूर्ण करके खड़ा होकर दिशाओं, उनके देवताओं, ब्रह्माजी, अग्‍नि, पृथ्‍वी, ओषधि, वाणी, वाचस्‍पति और सरिताओं को तथा मुझे भी प्रणाम करे । फिर जल लेकर प्रणवयुक्‍त ‘नमोभ्‍द्रय:’ यह मंत्र पढ़कर पूर्ववत् जल देवता को नमस्‍कार करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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