महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-42
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
श्रीभगवान बोले- राजन् ! समस्त चराचर जगत् अन्न के आधार पर ही टिका हुआ है । अन्न से प्राण की उत्पत्ति होती है, यह बात प्रत्यक्ष है; इसमें संशय नहीं है। अत: अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को स्त्री को कष्ट देकर अर्थात असके भोजन में से बचाकर भी देश और काल का विचार करके भिक्षुक को शक्ति के अनुसार अवश्य दान करना चाहिये। ब्राह्मण बालक हो अथवा बूढ़ा, यदि वह रास्ते का थका-मांदा घर पर आ जाय तो गृहस्थ पुरुष को बड़ी प्रसन्नता के साथ गुरु की भांति उसका सत्कार करना चाहिये। परलोक में कल्याण की प्राप्ति के लिये मनुष्य को अपने प्रकट हुए क्रोध को भी रोककर, मत्सरता का त्याग करके सुशीलता और प्रसन्नतापूर्वक अतिथि की पूजा करनी चाहिये। गृहस्थ पुरुष कभी अतिथि का अनादर न करे, उससे झूठी बात न कहे तथा उसके गोत्र, शाखा और अध्ययन के विषय में भी कभी प्रश्न न करे। भोजन के समय पर चाण्डाल या श्वपाक (महाचाण्डाल) भी घर आ जाय तो परलोक में हित चाहने वाले गृहस्थ को अन्न क द्वारा उसका सत्कार करना चाहिये। युधिष्ठिर ! जो (किसी भिक्षुक के भय से) अपने घर का दरवाजा बंद करके प्रसन्नतापूर्वक भोजन करता है, उसने मानो अपने लिये स्वर्ग का दरवाजा बंद कर दिया है। जो देवताओं, पितरों, ऋषियों, ब्राह्मणों, अतिथियों और निराश्रय मनुष्यों को अन्न से तृप्त करता है, उसको महान पुण्य फल की प्राप्ति होती है। जिसने अपने जीवन में बहुत-से पाप किये हों, वह भी यदि याचक ब्राह्मण को विशेष रूप से अन्न दान करता है तो सब पापों से छुटकारा पा जाता है। संसार में अन्न देने वाला पुरुष प्राणदाता माना जाता है, वही सब कुछ देने वाला है । अत: कल्याण चाहने वाले पुरुष को अन्न का दान विशेष रूप से करना चाहिये। अन्न को अमृत कहते हैं और अन्न ही प्रजा को जन्म देने वाला माना गया है । अन्न के नाश होने पर शरीर के पांचों धातुओं का नाश हो जाता है। बलवान पुरुष भी यदि अन्न का त्याग कर दे तो उसका बल नष्ट हो जाता है । इसलिये श्रद्धा से हो या अश्रद्धा से, अधिक चेष्टा करके अन्न-दान देना चाहिये। सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी का सारा रस खींचते हैं और हवा उसे लेकर बादलों में स्थापित कर देती है। भरतनन्दन ! बादलों में पड़े हुए उस रस इन्द्र पुन: इस पृथ्वी पर बरसाते हैं। उससे आप्लावित होकर पृथ्वी देवी तृप्त होती हैं। तब उसमें से अन्न के पौधे उगते हैं, जिनमें सम्पूर्ण प्रजा का जीवन-निर्वाह होता है । मांस, मेद, अस्थि और मज्जा की उत्पत्ति नाना प्रकार के अन्न से ही होती है।
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