महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-52

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-52 का हिन्दी अनुवाद

चान्‍द्रायण-व्रत की विधि, प्रायश्‍चित रूप में उसके करने का विधान तथा महिमा का वर्णन

युधिष्‍ठिर ने कहा – चक्रधारी देवेश्‍वर ! आपको नमस्‍कार है। गरुडध्‍वज भगवन ! अब आप मुझसे चान्‍द्रायण की परम पावन विधि का वर्णन कीजिये। श्रीभगवान बोले – पाण्‍डुनन्‍दन ! समस्‍त पापों का नाश करने वाले चान्‍द्रायण-व्रत का यथार्थ वर्णन सुनो । इसके आचरण से पापी मनुष्‍य शुद्ध हो जाते हैं । उसे मैं तुम्‍हें पूर्णतया बताता हूं। उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्‍य- जो कोई भी चान्‍द्रायण-व्रत का विधिवत अनुष्‍ठान करना चाहते हों, उनके लिये पहला काम यह है कि वे नियम के अंदर रहकर पंचगव्‍य के द्वारा समस्‍त शरीर का शोधन करें। फिर कृष्‍णपक्ष के अन्‍त में मस्‍तक सहित दाढ़ी-मूंछ आदि का मुण्‍डन करावें। तत्‍पश्‍चात् स्‍नान करके शुद्ध हो श्‍वेत वस्‍त्र धारण करें, कमर में मूंज की बनी हुई मेखला बांधें और पलाश का दण्‍ड हाथ में लेकर ब्रह्मचारी के पालन करते रहें। द्विज को चाहिये कि वह पहले दिन उपवास करके शुक्‍लपक्ष की प्रतिपदा को नदियों के संगम पर, किसी पवित्र स्‍थान में अथवा घर पर व्रत आरम्‍भ करे। पहले नित्‍य नियम से निवृत्‍त होकर एक वेदी पर अग्‍नि की स्‍थापना करे और उसमें क्रमश: आघार, आज्‍यभाग, प्रणव, महाव्‍याहृति और पंचवारुण होम करके सत्‍य, विष्‍णु, ब्रह्मार्षिगण, ब्रह्मा, विश्‍वेदेव तथा प्रजापति- इन छ: देवताओं के निमित्‍त हवन करे । अन्‍त में प्रायश्‍चित-होम करे। फिर शान्‍ति और पौष्‍टिक कर्म का अनुष्‍ठान करके अग्‍नि में हवन का कार्य समाप्‍त कर दे । तत्‍पश्‍चात् अग्‍नि तथा सोमदेवता को प्रणाम करे और विधिपूर्वक शरीर में भस्‍म लगाकर नदी के तट पर जा विशुद्धचित्‍त होकर सोम, वरुण तथा आदित्‍य को प्रणाम करके एकाग्र भाव से जल में स्‍नान करे। इसके बाद बाहर निकलकर आचमन करने के पश्‍चात् पूर्वाभिमुख होकर बैठे और प्राणायाम करके कुश की पवित्री से अपने शरीर का मार्जन करे। फिर आचमन करके दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य का दर्शन करे और हाथ जोड़कर खड़ा हो सूर्य की प्रदक्षिणा करे। उसके बाद भोजन से पूर्व ही नारायण, रुद्र, ब्रह्मा या वरुण सम्‍बन्‍धी सूक्‍त का पाठ करे। अथवा वीरघ्‍न, ऋषभ, अघमर्षण, गायत्री या मुझसे सम्‍बन्‍ध रखने वाले वैष्‍णव गायत्री-मंत्र का जाप करे। यह जप सौ बार या एक सौ आठ बार अथवा एक हजार बार करना चाहिये। तदनन्‍तर पवित्र एवं एकाग्रचित्‍त होकर मध्‍यान्‍हकाल में यत्‍नपूर्वक खीर या जौ की लप्‍सी बनाकर तैयार करे। अथवा सोने, चांदी, तांबे, मिट्टी या गूलर की लकड़ी का पात्र अथवा यज्ञ के लिये उपयोगी वृक्षों के हरे पत्‍तों का दोना बनाकर हाथ में ले ले और उसको ऊपर से ढक ले। फिर सावधानपूर्वक भिक्षा के लिये जाय। सात ब्राह्मणों के घर पर जाकर भिक्षा मांगे, सात से अधिक घरों पर न जाय। गौ दुहने में जितनी देर लगती है, उतने ही समय तक एक द्वार पर खड़ा होकर भिक्षा के लिये लिये प्रतीक्षा करे मौन रहे और इन्‍द्रियों पर काबू रखे। भिक्षा मांगने वाला पुरुष न तो हंसे, न इधर-उधर दृष्‍टि डाले और न किसी स्‍त्री से बातचीत करे। यदि मल, मूत्र, चाण्‍डाल, रजस्‍वला स्‍त्री, पतित मनुष्‍य तथा कुत्‍ते पर दृष्‍टि पड़ जाय तो सूर्य का दर्शन करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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