महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-61
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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
मुझमें चित्त लगाने पर कीड़े, पक्षी और पशु भी ऊर्ध्वगति को ही प्राप्त होते हैं, फिर ज्ञानी मनुष्यों की तो बात ही क्या हैं ? मेरा भक्त शूद्र भी यदि पत्र, पुष्प, फल अथवा जल ही अर्पण करे तो मैं उसे सिर पर धारण करता हूँ। जो ब्राह्मण सम्पूर्ण भूतों के हृदय में विराजमान मुझ परमेश्वर का वेदाक्त रीति से पूजन करते हैं, वे मेरे सायुज्य को प्राप्त होते हैं। युधिष्ठिर ! मैं अपने भक्तों का हित करने के लिये ही अवतार धारण करता हूं, अत: मेरे प्रत्येक अवतार – विग्रह का पूजन करना चाहिये। जो मनुष्य मेरे अवतार-विग्रहों में से किसी एक की भी भक्तिभाव से आराधना करता हैं, उसके ऊपर मैं नि:संदेह प्रसन्न होता हूँ। मिट्टी, तांबा, चांदी, स्वर्ण अथवा मणि एवं रत्नों की मेरी प्रतिमा बनवाकर उसकी पूजा करनी चाहिये । इनमें उत्तरोत्तर मूर्तियों की पूजा से दस गुना अधिक पुण्य समझना चाहिये। यदि ब्राह्मण को विद्या की, क्षत्रिय को युद्ध में विजय की, वैश्य को धन की, शूद्र को सुखरूप फल की तथा स्त्रियों को सब प्रकार की कामना हो तो ये सब मेरी आराधना से अपने सभी मनोरथों को प्राप्त कर सकते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा – देवेश्वर ! आप किस तरह के शूद्रों की पूजा नहीं स्वीकार करते तथा आपको कौन सा कार्य बुरा लगता हैं ? यह मुझे बतलाइये। श्रीभगवान् ने कहा – राजन् ! जो व्रत का पालन न करने वाला और मेरा भक्त नहीं है, उस शूद्र की स्पर्श की हुई पूजा को मैं कुत्ता पकाने वाले चाण्डाल की की हुई समझकर त्याग देता हूँ। युधिष्ठिर ! गौ, ब्राह्मण और पीपल का वृक्ष– ये तीनों देवरूप हैं। इन्हें मेरा और भगवान् शंकर का स्वरूप समझना चाहिये । मेरे भक्त पुरुष को उचित है कि वह इन तीनों का कभी अपमान न करे। पाण्डुनन्दन ! मेरे स्वरूप होने के कारण पीपल, ब्राह्मण और गौ– ये तीनों मनुष्य का उद्धार करने वाले हैं, इसलिये तुम यत्नपूर्वक इन तीनों की पूजा किया करो। युधिष्ठिर ने पूछा– भगवन् ! यदि कोई ब्राह्मण परदेश गया हो और वहीं काल की प्रेरणा से उसका शरीर नष्ट हो जाये तो उसकी प्रेतक्रिया (अन्त्येष्टि–संस्कार) किस प्रकार सम्भव है ? श्रीभगवान् ने कहा– राजन् ! यदि किसी अग्निहोत्री ब्राह्मण की इस प्रकार मृत्यु हो जाए तो उसका संस्कार करने के लिये प्रेतकल्प में बताये अनुसार उसकी काष्ठमयी प्रतिमा बनवानी चाहिये । वह काष्ठ पलाश का ही होना उचित है। युधिष्ठिर ! मनुष्य के शरीर में तीन सौ साठ हड्डियां बतायी गयी हैं। उन सबकी शास्त्रोक्त रीति से कल्पना करके उस प्रतिमा का दाह करना चाहिये। युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन् ! जो भक्त तीर्थयात्रा करने में असमर्थ हों, उन सबको तारने के लिये कृपया किसी विशेष तीर्थ का धर्मानुसार वर्णन कीजिये । श्री भगवान् ने कहा– राजन् ! सामवेद का गायन करने वाले विद्वान् कहते हैं कि सत्य सब तीर्थों को पवित्र करने वाला है । सत्य बोलना और किसी जीव की हिंसा न करना– ये तीर्थ कहलाते हैं। युधिष्ठिर ! तप, दया, शील, थोडे में संतोष करना– ये सदगुण भी तीर्थरूप में ही हैं तथा पतिव्रता नारी भी तीर्थ है।
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