महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-62
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
संतोषी ब्राह्मण और ज्ञान को भी तीर्थ कहते हैं । मेरे भक्त सदैव तीर्थरूप हैं और शंकर के भक्त विशेषतया तीर्थ हैं । संन्यासी और विद्वान भी तीर्थ कहे जाते हैं । दूसरों को शरण देने वाले पुरुष भी तीर्थ हैं । जीवों को अभय दान देना भी तीर्थ ही कहलाता है। मैं तीनों लोकों में उद्वेगशून्य हूं । दिन हो या रात, मुझे कभी किसी से भी भय नहीं होता; किंतु शुद्र का मर्यादा-भंग करना मुझे बुरा लगता है । राजन् ! देवता, दैत्य और राक्षसों से भी मैं नहीं डरता । परंतु शूद्र के मुख से जो वेद का उच्चारण होता है, उससे मुझे सदा ही भय बना रहता है। इसलिये शूद्र को मेरे नाम का भी प्रणव के साथ उच्चारण नहीं करना चाहिये, क्योंकि वेदवत्ता विद्वान् इस संसार में प्रणव को सर्वोत्कृष्ट वेद मानते हैं। शूद्र मुझमें भक्ति रखते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करें – यही उनका परम धर्म है। द्विजों की सेवा से ही शूद्र परम कल्याण के भागी होते हैं । इसके सिवा उनके उद्धार का दूसरा कोई उपाय नहीं है। ब्रह्माजी ने शूद्रों को तामस गुणों से युक्त उत्पन्न करके उनके लिये द्विजों की सेवारूप धर्म का उपदेश किया । द्विजों की भक्ति से शूद्र के तामसी भाव नष्ट हो जाते हैं । शूद्र भी यदि भक्तिपूर्वक मुझे पत्र, पुष्प, फल अथवा जल अर्पण करता है तो मैं उसके भक्तिपूर्वक दिये हुए उपहार को सादर शीश चढ़ाता हूं। सम्पूर्ण पापों से मुक्त युक्त होने पर भी यदि कोई ब्राह्मण सदा मेरा ध्यान करता रहता है तो वह अपने सम्पूर्ण पापों से छुटकारा पा जाता है। विद्या और विनय से सम्पन्न तथा वेदों के पारंगत विद्वान होने पर भी जो ब्राह्मण मुझमें भक्ति नहीं करते, वे चाण्डाल के समान है। जो द्विज मेरा भक्त नहीं है, उसके दान, तप, यज्ञ, होम और अतिथि-सत्कार –ये सब व्यर्थ है। पाण्डुनन्दन ! जब मनुष्य समस्त स्थावर–जंगम प्राणियों में एवं मित्र और शत्रु में समान दृष्टि कर लेता है, उस समय वह मेरा सच्चा भक्त होता है। राजन् ! क्रूरता का अभाव, अहिंसा, सत्य, सरलता तथा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना– यह मेरे भक्तों का व्रत है। पृथ्वीनाथ ! जो मनुष्य मेरे भक्त को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता है, वह चाण्डाल ही क्यों न हो, उसे अक्षय लोकों की प्राप्ति होती है। फिर जो साक्षात् मेरे भक्त हैं, जिनके प्राण मुझमें ही लगे रहते हैं तथा जो सदा मेरे ही नाम और गुणों का कीर्तन करते रहते हैं, वे यदि लक्ष्मी सहित मेरी विधिवत् पूजा करते हैं तो उनकी सद्गति के विषय में क्या कहना हैं ? अनेकों हजारों वर्षो तक तपस्या करने वाला मनुष्य भी उस पद को प्राप्त नहीं होता, जो मेरे भक्तों को अनायास ही मिल जाता है। इसलिये राजेन्द्र ! तुम सदा सजग रहकर निरन्तर मेरा ही ध्यान करते रहो, इससे तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी और तुम निश्चय ही परम पद का साक्षात्कार कर सकोगे। जो होता बनकर ऋगवेद के द्वारा, अध्वर्यु होकर यजुर्वेद के द्वारा, उद्गाता बनकर परम पवित्र सामवेद के द्वारा मेरा स्तवन करते हैं तथा अथर्ववेदीय द्विजों के रूप में जो अथर्ववेद के द्वारा हमेशा मेरी स्तुति किया करते हैं, वे भगवद्भक्त माने गये हैं । यज्ञ सदा वेदों के अधीन हैं और देवता यज्ञों तथा ब्राह्मणों के अधीन होते हैं, इसलिये ब्राह्मण देवता हैं।
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