महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-64
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
। उस समय कुरूदेश के राजा युधिष्ठर भी प्रेमवश भगवान् के पीछे–पीछे स्वयं भी रथ पर जा बैठे और तुरंत ही श्रेष्ठ दारूक को सारथि के स्थान से हटाकर उन्होंने घोडों की बागडोर अपने हाथ में ले ली। फिर अर्जुन भी रथ पर आरूढ़ हो स्वर्णदण्ड युक्त विशाल चँवर हाथ में लेकर दाहिनी ओर से भगवान् के मस्तक पर हवा करने लगे। इसी प्रकार महाबली भीमसेन भी रथ पर जा चढे और भगवान् के ऊपर छत्र सौ कमानियों से युक्त तथा दिव्य मालाओं से सुशोभित था। उसका डंडा वैदूर्यमणि का बना हुआ था तथा सोने की झालरें उसकी शोभा बढ़ा रही थीं । भीमसेन ने शार्ग्डधनुषधारी श्रीकृष्ण के उस छत्र को शीघ्र ही धारण कर लिया। नकुल और सहदेव भी अपने हाथों में सफेद चँवर लिये शीघ्र रथ पर सवार हो गये और भगवान् जनार्दन के ऊपर डुलाने लगे। इस प्रकार युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ने हर्षपूर्वक श्रीकृष्ण का अनुसरण किया और कहने लगे – ‘आप मत जाइये’ । तीन योजन (चौबीस मील) तक चले आने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने चरणों में पडे हुए पाण्डवों को गले से लगाकर विदा किया और स्वयं द्वारका को चले गये।। इस प्रकार भगवान् गाविन्द को प्रणाम करके जब पाण्डव घर लौटे, उस दिन से सदा धर्म में तत्पर रहकर कपिला आदि गौओं का दान करने लगे। वे सब पाण्डव भगवान् श्रीकृष्ण के वचनों को बारंबार याद करके और उनको हृदय में धारण करके मन-ही-मन उनकी सराहना करते थे। धर्मात्मा युधिष्ठिर ध्यान द्वारा भगवान् को अपने हृदय में विराजमान करके उन्हीं के भजन में लग गये, उन्हीं का स्मरण करने लगे और योगयुक्त होकर भगवान् का यजन करते हुए उन्हीं के परायण हो गये।
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