महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-63

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-63 का हिन्दी अनुवाद

किसी का सहारा लिये बिना कोई ऊंचे नही चढ़ सकता, अत: सबको किसी प्रधान आश्रय का सहारा लेना चाहिये । देवता लोग भगवान् रूद्र के आश्रय में रहते हैं, रूद्र ब्रह्माजी के आश्रित हैं। ब्रह्माजी मेरे आश्रय में रहते हैं, किंतु मैं किसी के आश्रित नहीं हूं । राजन् ! मेरा आश्रय कोई नहीं हैं । मैं ही सबका आश्रय हूं। राजन् इस प्रकार ये उत्‍तम रहस्‍य की बातें मैंने तुम्‍हें बतायी हैं, क्‍योंकि तुम धर्म के प्रेमी हो । अब तुम इस उपदेश के ही अनुसार सदा आचरण करो। यह पवित्र आख्‍यान पुण्‍यदायक एवं वेद के समान मान्‍य है। पाण्‍डुनन्‍दन ! जो मेरे बताये हुये इस वैष्‍णव धर्म का प्रतिदिन पाठ करेगा, उसके धर्म की वृद्धि होगी और बुद्धि निर्मल। साथ ही उसके समस्‍त पापोंका नाश होकर परम कल्‍याण का विस्‍तार होगा। यह प्रसंग परम पवित्र, पुण्‍यदायक, पापनाशक और अत्‍यन्‍त उत्‍कृष्‍ट है। सभी मनुष्‍यों को, विशेषत: श्रोत्रिय विद्वानों को श्रद्धा के साथ इसका श्रवण करना चाहिये। जो मनुष्‍य भक्‍तिपूर्वक इसे सुनाता और पवित्रचित्‍त होकर सुनता है, वह मेरे सायुज्‍य का प्राप्‍त होता हैं, इसमें कोइ शंका नहीं है। मेरी भक्‍ति में तत्‍पर रहने वाला जो भक्‍त पुरुष श्राद्ध में इस धर्म को सुनाता है, उसके पितर इस ब्राह्मण्‍ड के प्रलय होने तक सदा तृप्‍त बने रहते हैं। वैशम्‍पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! साक्षात्‍ विष्‍णुस्‍वरूप जगद्गुरू भगवान् श्रीकृष्‍ण के मुख से भागवत धर्मों का श्रवण करके इस अद्भुद प्रसंग पर विचार करते हुए ऋषि और पाण्‍डव लोग बहुत प्रसन्‍न हुए और सबने भगवान् को प्रणाम किया । धर्मनन्‍दन युधिष्‍ठिर ने तो बारंबार गोविन्‍द का पूजन किया। देवता, ब्रह्मर्षि, सिद्ध, गन्‍धर्व, अप्‍सराएं, ऋषि, महात्‍मा, गुह्मक, सर्प, महात्‍मा बालखिल्‍य, तत्‍त्‍वदर्शी योगी तथा पन्‍चयाम उपासना करने वाले भगवद् भक्‍त पुरुष, जो अत्‍यन्‍त उत्‍कण्‍ठित होकर उपदेश सुनने के लिये पधारे थे, इस परम पवित्र वैष्‍णव-धर्म का उपदेश सुनकर तत्‍क्षण निष्‍पाप एवं पवित्र हो गये। सबमें भगवद्भक्‍ति उमड आयी। फिर उन सबने भगवान् के चरणों में मस्‍तक झुकाकर प्रणाम किया और उनके उपदेश की प्रशंसा की। फिर ‘भगवान् ! अब हम द्वारका में पुन: आप जगद्गुरू का दर्शन करेंगे।‘ यों कहकर सब ऋषि प्रसन्‍नचित हो देवताओं के साथ अपने-अपने स्‍थान को चले गये। राजन् ! उन सबके चले जानेपर केशिनिषूदन भगवान् श्रीकृष्‍ण ने सात्‍यकि सहित दारूक को याद किया । सारथि दारूक पास ही बैठा था, उसने निवेदन किया – ‘भगवन् ! रथ तैयार है, पधारिये।‘ यह सुनकर पाण्‍डवों का मुहं उदास हो गया । उन्होंने हाथ जोडकर सिर से लगाया और वे ऑंसू भरे नत्रों से पुरूषोत्‍तम श्रीकृष्‍ण की ओर एकटक देखने लगे, किंतु अत्‍यन्‍त दुखी होने के कारण उस समय कुछ बोल न सके। देवेश्‍वर भगवान् श्रीकृष्‍ण भी उनकी दशा देखकर दुखी-से हो गये और उन्‍होंने कुन्‍ती, धृतराष्‍ट्र, गान्‍धारी, विदुर, द्रौपदी, महर्षि व्‍यास और अन्‍यान्‍य ऋषियों एवं मन्‍त्रियों से विदा लेकर सुभद्रा तथा पुत्र सहित उत्‍तरा की पीठ पर हाथ फेरा और आशीर्वाद देकर वे उस राजभवन से बाहर निकल आये और रथ पर सवार हो गये। उस रथ में शैब्‍य, सुग्रीव, मेघपुष्‍प और बलाहक नाम वाले चार घोडे जुते हुए थे तथा बुद्धिमान् गरूड का ध्‍वज फहरा रहा था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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