महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-8
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
युधिष्ठिर ! ये सब वृथा दान संक्षेप में बताये गये । अब जिन् - जिन मनुष्यों का जीवन व्यर्थ है उनका परिचय दे रहा हूं ; सुनो। जो नराधम मेरी, भगवान् शंकर की अथवा भूमण्डल के देवता ब्राह्मणों की शरण नहीं लेते, वे मनुष्य व्यर्थ ही जीते हैं। जिनकी कोरे तर्कशास्त्र में ही आसक्ति है, जो नास्तिक –पथ का अवलम्बन करते हैं, जिन्होंने आचार त्याग दिया है तथा जो देवताओं की निन्दा करते हैं, वे मनुष्य व्यर्थ ही जी रहें हैं। जो नराधम नास्तिकों के शास्त्र पढ़कर ब्राह्मण और यज्ञों की निन्दा करते हैं, वे व्यर्थ ही जीपन धारण करते हैं। जो मूढ़ दुर्गा, स्वामी कार्तिकेय, वायु, अग्नि, जल, सूर्य, माता – पिता, गुरु, इन्द्र तथा चन्द्रमा की निन्दा करते और आचार का पालन नहीं करते, वे मनुष्य भी निरर्थक ही जीवन व्यतीत करते हैं। जो धन होने पर भी दान और धर्म नहीं करता तथा दूसरों को न देकर अकेले ही मिठाई खाया करता है, वह भी व्यर्थ ही जीता है। इस प्रकार व्यर्थ जीवन की बात बतायी गयी । अब दान का समय बताता हूं। राजन् ! तमोगुण में आविष्ट हुए चित्त वाले मनुष्य के द्वारा जो दान दिया जाता है, उसका फल मनुष्य गर्भावस्था में भोगता है। ईर्ष्या और मत्सरता से युक्त मनुष्य अर्थ लोभ से और दम्भ पूर्वक जिस दान को देता है, उसका फल वह बाल्यावस्था में भोगता है। भोगों को भोगने में अशक्त, अत्यन्त व्याधि से पीड़ित मनुष्य जिस दान को देता है, उसके फल का उपभोग वह वृद्धावस्था में करता है। जो मनुष्य स्नान करके पवित्र हो मन और इन्द्रियों को प्रसन्न रखकर श्रद्धा के साथ दान करता है, उसके फल को वह यौवनावस्था में भोगता है। जो स्वयं देने योग्य वस्तु ले जाकर भक्ति पूर्वक सत्पात्र को दान करता है, उसको मरणपर्यन्त हर समय उस दान का फल प्राप्त होता है, ऐसा समझो। युधिष्ठिर ! दान और उसका फल सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन – तीन प्रकार का होता है तथा उसकी गति भी तीन प्रकार की होती है, इसे सुनो। दान देना कर्तव्य है – ऐसा समझकर अपना उपकार न करने वाले ब्राह्मण को जो दान दिया जाता है, वही सात्विक है। पाण्डुनन्दन ! जिसका कुटुम्ब बहुत बड़ा हो तथा जो दरिद्र और वेद का विद्वान् हो, ऐसे ब्राह्मण को प्रसन्नतापूर्वक जो कुछ दिया जाता है, वह भी सात्विक कहा जाता है। परंतु जो वेद का एक अक्षर भी नहीं जानता, जिसके घर में काफी सम्पत्ति मौजूद है तथा जो पहले कभी अपना उपकार कर चुका है, ऐसे ब्राह्मण को दिया हुआ दान राजस माना गया है। पाण्डव ! अपने सम्बन्धी और प्रमादी को दिया हुआ, फल की इच्छा रखने वाले मनुष्यों के द्वारा दिया हुआ तथा अपात्र को दिया हुआ दान भी राजस ही है। जो ब्राह्मण बलिवैश्वदेव नहीं करता, वेद का ज्ञान नहीं रखता तथा चोरी किया करता है, उसको दिया हुआ दान तामस है। क्रोध, तिरस्कार, क्लेश और अवहेलनापूर्वक तथा सेवक को दिया हुआ दान भी तामस ही बतलाया गया है। नरेश्वर ! सात्विक दान को देवता, पितर, मुनि और अग्नि ग्रहण करते हैंतथा उससे इन्हें बड़ा संतोष होता है।
« पीछे | आगे » |