महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-9
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
राजस का दानव, दैत्य, ग्रह, यक्ष, और राक्षस उपभोग करते हैं, पितर और देवता नहीं करते। तामस दान का फल पापी और मलिन कर्म करने वाले प्रेत एवं पिशाच भोगते हैं । अब त्रिविध गति का वर्णन सुनो। सात्विक दानों का फल उत्तम, राजस दानों का मध्यम और तामस दानों का अधम होता है। जो दान सामने जाकर दिया जाता है, उसका फल उत्तम होता है ; जो दान पात्र को बुलाकर दिया जाता है, उसका फल मध्यम होता है और जो याचना करने वाले को दिया जाता है, उसका फल जघन्य होता है। जो याचना न करने वाले को देता है, वह उत्तम गति को प्राप्त करता है ; जो बुलाकर देता है, वह मध्यम गति को जाता है और जो याचना करने वाले को दता है, वह नीची गति को पाता है। दैवी गति को उत्तम समझना चाहिये । मानुषी गति मध्यम है तिर्यग्योनियां नीच गति है– यह इनका तीन प्रकार माना गया है। दान के उत्तम पात्र अग्निहोत्री ब्राह्मण को जो दान दिया जाता है, वह अक्षय बतलाया गया है। अत: भूपाल ! जो वेद के विद्वान होते हुए दरिद्र हों, उनके भरण–पोषण का तुम स्वयं प्रबन्ध करो और सम्पत्तिशाली द्विजों की रक्षा करते रहो। धनहीन दरिद्र ब्राह्मणों को दान देकर उनकी भली भांति पूजा करो; क्योंकि रोगी को ही औषधि की आवश्यकता होती है, नीरोग औषधि से क्या प्रयोजन ? दाता का पाप दान के साथ ही दान लेने वाले के पास चला जाता है और उसका पुण्य दाता को प्राप्त हो जाता है, अत: परलोक में अपना हित चाहने वाले पुरुष को सदा दान करते रहना चाहिये। जो वेद–विद्या पढ़कर अत्यन्त शुद्ध आचार–विचार से रहते हों और शुद्रों का अन्न कभी नहीं ग्रहण करते हों, ऐसे विद्वानों को प्रयत्न पूर्वक बड़े–बड़े दानों का भण्डार बनाना चाहिये। पाण्डुनन्दन ! जिनकी स्त्रियां अपने पति के भोजन से बचे हुए अन्न को हजारों गुना लाभ समझकर उसे मिलने की प्रतीक्षा किया करती हैं, ऐसे ब्राह्मणों को भोजन के लिये निमन्त्रित करना। भारत ! दरिद्र कुल के ब्राह्मणों को निमन्त्रित करके उन्हें निराश न लौटाना, अन्यथा उनकी आशा मारी जायगी। नरश्रेष्ठ ! जो मेरे भक्त हों, मेरे मन लगाने वाले हों, मेरी शरण में हो, मेरा पूजन करते हो और नियम पूर्वक मुझमें ही लगे रहते हों, उनका यत्न पूर्वक पूजन करना चाहिये। युधिष्ठिर ! अपने उन भक्तों को पवित्र करने के लिये मैं प्रतिदिन दोनों समय संध्या में व्याप्त रहता हूं । मेरा यह नियम कभी खण्डित नहीं होता। इसलिये मेरे निष्पाप भक्तजनों को चाहिये कि वे आत्म शुद्धि के लिये संध्या के समय निरंतर अष्टाक्षर मन्त्र ( ऊँ नमो नारायणाय)– का जप करते रहें। संध्या और अष्टाक्षर–मन्त्र का जप करने से दूसरे ब्राह्मणों के भी पाप नष्ट हो जाते हैं, अत: चित्तशुद्धि के लिये प्रत्येक ब्राह्मण को दोनों काल की संध्या करनी चाहिये। जो ब्राह्मण इस प्रकार संध्योपासन और जप करता हो, उसे देवकार्य और श्राद्ध में नियुक्त करना चाहिये। उसकी निन्दा कदापि नहीं करनी चाहिये ; क्योंकि निन्दा करने पर ब्राह्मण उस श्राद्ध को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे आग ईंधन को जला डालती है।
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