महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 श्लोक 20-39
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
‘यदि इन्द्र बारह वर्षों तक वर्षा नहीं करेंगे तो मैं व्रत – नियमों का पालन करता हुआ ध्यान द्वारा ध्येय रूप से स्थित हो इन यज्ञों का अनुष्ठान करूंगा‘। ‘यह बीज – यज्ञ मैंने बहुत वर्षा से संवित कर रखा है । उन बीजों से ही मैं अपना यज्ञ पूरा कर लूंगा । इसमें कोई विघ्न नहीं होगा। ‘इन्द्रदेव यहां वर्षा करें अथवा यहां वर्षा न हो, इसकी मुझे परवा नहीं है, मेरे इस यज्ञ को किसी तरह व्यर्थ नहीं किया जा सकता। ‘अथवा यदि इन्द्र इच्छानुसार जल बरसाने के लिये की हुई मेरी प्रार्थना पूर्ण नहीं करेगें तो मैं स्वयं इन्द्र हो जाऊंगा और समस्त प्रजा के जीवन की रक्षा करूंगा। ‘जो जिस आहार से उत्पन्न हुआ है, उसे वही प्राप्त होगा तथा मैं बारंबार अधिक मात्रा में विशेष आहार की भी व्यवस्था करूंगा। ‘तीनो लोकों में जो सुवर्ण या दूसरा कोई धन है, वह सब आज यहां स्वत: आ जाय। महर्षि अगस्त्य की यज्ञ के समय प्रतिज्ञा ‘दिव्य अप्सराओं के समुदाय, गन्धर्व, किन्नर, विश्वावसु तथा जो अन्य प्रमुख गन्धर्व हैं, वे सब यहां आकर मेरे यज्ञ की उपासना करें। ‘ उत्तर कुरुवर्ष में जो कुछ धन है, वह सब स्वयं यहां मेरे यज्ञों में उपस्थित हो । स्वर्ग, स्वर्गवासी देवता और धर्म स्वयं यहां विराजमान हो जायं। प्रज्ज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी, अतिशय कान्तिमान् महर्षि अगस्त्य के इतना कहते ही उनकी तपस्या के प्रभाव से ये सारी वस्तुएं वहां प्रस्तुत हो गईं। उन महर्षियों ने बड़े हर्ष के साथ महर्षि के उस तपोबल को प्रत्यक्ष देखा । देखकर वे सब लोग आश्चर्यचकित हो गये और इस प्रकार महान् अर्थ से भरे हुए वचन बोले। ऋषि बोले – महर्षे ! आपकी बातों से हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है । हम आपकी तपस्या का व्यय होना नहीं चाहते हैं । हम आपके उन्हीं यज्ञों से संतुष्ट हैं और न्याय से उपार्जित अन्न की इच्छा रखते हैं। यज्ञ, दीक्षा, होम तथा और जो कुछ हम खोजा करते हैं, वह सब हमें यहां प्राप्त है । न्याय से उपार्जित किया हुआ अन्न ही हमारा भोजन है और हम सदा अपने कर्मों में लगे रहते हैं। हम ब्रह्मचर्य का पालन करके न्यायत: वेदों को प्राप्त करना चाहते हैं और अन्त मेंन्यायपूर्वक ही हम घर छोड़कर निकले हैं। धर्मशास्त्र में देखे गये विधि – विधान से ही हम तपस्या करेंगे। आपको हिंसा रहित बुद्धि ही अधिक प्रिय है ; अत: प्रभो ! आप यज्ञों में सदा इस अहिंसा का ही प्रतिपादन करें । द्विजश्रेष्ठ ! ऐसा करने से हम आप पर बहुत प्रसन्न होंगे । यज्ञ की समाप्ति होने पर जब आप हमें विदा करेंगे, तब हम यहां से अपने घर को जायंगे। जनमेजय ! जब ऋषि लोग ऐसी बाते कह रहे थे, उसी समय महा तेजस्वी देवराज इन्द्र ने महर्षि का तपोबल देखकर पानी बरसाना आरम्भ किया । जब तक उस यज्ञ की समाप्ति नहीं हुई, तब तक अमित पराक्रमी इन्द्र ने वहां इच्छानुसार वर्षा की। राजर्षे ! देवेश्वर इन्द्र ने स्वयं आकर बृहस्पति को आगे करके अगस्त्य ऋषि को मनाया। तदनन्तर यज्ञ समाप्त होने पर अत्यन्त प्रसन्न हुए अगस्त्यजी ने उन महामुनियों की विधिवत् पूजा करके सबको विदा कर दिया। जनमेजय ने पूछा – मुने ! सोने के मस्तक से युक्त वह नेवला कौन था, जो मनुष्यों की – सी बोली बोलता था ? मेरे इस प्रश्न का मुझे उत्तर दीजिये।
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