महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 126 श्लोक 1-18
षड्-विंशधिकशततम (126) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! धृतराष्ट्र का कथन सुनकर युद्ध में जनसंहार की संभावना से समान रूप से दु:ख का अनुभव करनेवाले भीष्म और द्रोणाचार्य ने गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा-। ‘वत्स ! जब तक श्रीक़ृष्ण और अर्जुन कवच धारण करके युद्ध के लिए उद्यत नहीं होते हैं, जब तक गाँडीव धनुष घर में रखा हुआ है, जब तक धौम्य मुनि यज्ञाग्नि में शत्रुओं की सेना के विनाश के लिए आहुती नहीं डालते हैं और जबतक लज्जाशील महाधनुर्धर युधिष्ठिर तुम्हारी सेना पर क्रोधपूर्ण दृष्टि नहीं डालते हैं, तभी तक यह भावी जनसंहार शांत हो जाना चाहिए। ‘जब तक कुंतीपुत्र महाधनुर्धर भीमसेन अपनी सेना के अग्रभाग में खड़े नहीं दिखाई देते हैं, तभी तक यह मारकाट का संकल्प शांत हो जाना चाहिए। ‘दुर्योधन ! जब तक हाथ में गदा लिए भीमसेन तुम्हारी सेना का संहार करते हुए युद्ध के विभिन्न मार्गोंमें विचरण नहीं कर रहे हैं, तभी तक तुम पाँडवों के साथ संधि कर लो। ‘जबतक भीमसेन अपनी वीरघातिनी गदा के द्वारा समयानुसार पके हुए वृक्ष के फलों की भाँति संग्रामभूमि में गजारोही योद्धाओं के मस्तकों को काट-काटकर नहीं गिरा रहे हैं, तभी तक तुम्हारा युद्धविषयक संकल्प शांत हो जाना चाहिए। ‘नकुल, सहदेव, द्रुपदपुत्र धृष्टद्यूमन्न, विराट, शिखंडी तथा शिशुपालपुत्र धृष्टकेतू – ये अस्त्रविद्या में निपुन् महान् वीर कवच धारण करके महासागर में घुसे हुए ग्राहों की भाँति तुम्हारी सेना के भीतर जब तक प्रवेश नहीं करते हैं, तभी तक यह जनसंहार का संकल्प शांत हो जाना चाहिए। ‘जब तक इन भूमिपालों के सुकुमार शरीरों पर गीध की पांखों से युक्त भयंकर बाण नहीं गिर रहे हैं, तभी तक युद्ध का संकल्प शांत हो जाये। ‘सामने आते ही लक्ष्य को मार गिरानेवाले, शीघ्रतापूर्वक बाण चलाने और दुरतक का लक्ष्य बींधनेवाले, अस्त्रविद्या के पारंगत महाधनुर्धर विपक्षी वीर जब तक तुम्हारे योद्धाओं के चन्दन और अगुरु से चर्चित तथा हार और निष्क धारण करनेवाले वक्ष: स्थलों पर विशाल बाणों की वर्षा नहीं करते, तभी तक तुम्हें युद्ध का विचार त्याग देना चाहिए। ‘हम चाहते हैं कि नृपश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करते देख दोनों हाथों से पकड़ (कर हृदय से लगा ) लें। ‘भारतश्रेष्ठ ! उत्तम दक्षिणा देनेवाले युधिष्ठिर ध्वजा, अंकुश और पताकाओं के चिन्ह से सुशोभित अपनी दाहिनी भुजा को जगत् में शांति स्थापित करने के लिए तुम्हारे कंधे पर रखें । ‘तथा तुम्हें पास में बैठाकर रत्न एवं औषधियों से युक्त लाल हथेलीवाले हाथ से तुम्हारी पीठ को धीरे-धीरे सहलाएँ। ‘भरतभूषण ! शालवृक्ष के तने के समान ऊँचे डीलडौल वाले महाबाहु भीमसेन भी शांति के लिए तुम्हें हृदय से लगाकर तुमसे मीठी-मीठी बातें करें। ‘राजन् ! अर्जुन और अंकुल-सहदेव – ये तीनों भाई तुम्हें प्रणाम करें और तुम उनके मस्तक सूंघकर उनके साथ प्रेम-पूर्वक वार्तालाप करो। ‘तुम्हें अपने वीर भाई पाँडवों के साथ मिला हुआ देख ये सब नरेश अपने नेत्रों से आनंद के आँसू बहाएँ। ‘राजाओं की सभी राजधानियों में यह घोषणा करा दी जाये कि कौरव-पाँडवों का सारा झगड़ा समाप्त होकर परस्पर प्रेमपूर्वक उनका समस्त कार्य सम्पन्न हो गया । फिर तुम और युधिष्ठिर परस्पर भ्रातभाव रखते हुए इस राज्य का समान रूप से उपभोग करो, तुम्हारी सारी चिंताएँ दूर हो जाएँ ।
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