महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 151 श्लोक 19-36
एकपञ्चाशदधिकततम (151) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
जो अग्नि की ज्वाला के समान कान्तिमान महाबाहु वीर अपने पिता की तपस्या के प्रभाव से तथा महर्षियों के कृपाप्रसाद से उत्पन्न हुआ दिव्य पुरूष है, जो अग्निकुण्ड से कवच, धनुष और खड्ग धारण किये प्रकट हुआ और तत्काल ही दिव्य एवं उत्तम अश्वों से जुते हुए रथ पर आरूढ हो युद्ध के लिये सुसज्जित देखा गया था, जो पराक्रमी वीर अपने रथ की घरघराहट से गर्जते हुए महामेध के समान जान पड़ता है, जिसके शरीर की गठन, पराक्रम, हृदय, वक्ष:स्थल, बाहु, कंधे और गर्जना- ये सभी सिंह के समान हैं, जो महाबली, महातेजस्वी और महान वीर हैं, जिसकी भौंहे, दन्तपंक्ति, ठोडी, भुजाएं और मुख बहुत सुन्दर हैं, जो सर्वथा ह्रष्ट-पुष्ट हैं, जिसके गले की हँसुली सुन्दर दिखायी देती हैं, जिसका किसी भी अस्त्र-शस्त्र से भेद नहीं हो सकता, जो मद की धारा बहाने वाले गजराज के सदृश पराक्रमी वीर द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये उत्पन्न हुआ है तथा जो सत्यवादी एवं जितेन्द्रिय है, उस ध्रष्टद्युम्न को ही मैं प्रधान सेनापति बनाने के योग्य मानता हूँ। पितामह भीष्म के बाण प्रज्वलित मुख वाले सर्पों के समान भयंकर है, उनका स्पर्श वज्र और अशनि के समान दु:सह है, वीर ध्रष्टद्युम्न ही उन बाणों का आघात सह सकता है | पितामह भीष्म के बाण आघात करने में अग्नि के सामान तेजस्वी एवं यमदूतों के समान प्राणों का हरण करने वाले हैं। वज्र की गडगडाहट के समान गम्भीर शब्द करने वाले उन बाणों का पहले युद्ध में परशुरामजी ने ही सहा था। राजन ! मैं ध्रष्टद्युम्न के सिवा ऐसे किसी पुरूष को नहीं देखता, जो महान व्रतधारी भीष्म का वेग सह सके । मेरा तो यही निश्चय है |जो शीघ्रतापूर्वक हस्तसंचालन करने वाला, विचित्र पद्धति से युद्ध करने में कुशल, अभेद्य कवच ये सम्पन्न एवं यूथपति गजराजकी भाँति सुशोभित होनेवाला है, मेरी सम्मति में वह श्रीमान ध्रष्टद्युम्न ही सेनापति होने के योग्य है |
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय ! अर्जुन के ऐसा कहने पर भीमसेन ने अपना विचार इस प्रकार प्रकट किया ॥ भीमसेन ने कहा— राजेन्द्र ! द्रुपदकुमार शिखण्डी पितामह भीष्म का वध करनेके लिये ही उत्पन्न हुआ है। यह बात यहाँ पधारे हुए सिद्धों एवं महर्षियों ने बतायी है ! संग्रामभूमि में जब वह अपना दिव्यास्त्र प्रकट करता है, उस समय लोगों को उसका स्वरूप महात्मा परशुरामके समान दिखायी देता है। मैं ऐेसे किसी वीर को नहीं देखता, जो युद्ध में शिखण्डी को मार सके। राजन ! जब महाव्रती भीष्म रथ पर बैठकर अस्त्र–शस्त्रों से सुसज्जित हो सामने आयेंगे, उस समय द्वैरथ युद्ध में शूरवीर शिखण्डी के सिवा दूसरा कोई योद्धा उन्हें नहीं मार सकता। अत: मेरे मत में वही प्रधान सेनापति होने के योग्य है|
युधिष्ठिर बोले— तात ! धर्मात्मा भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत के समस्त सारासार और बलाबल को जानते हैं तथा इस विषय में इन सब राजाओं का क्या मत है— इससे भी ये पूर्ण परिचित हैं | अत: दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण जिसका नाम बतावें, यही हमारी सेना का प्रधान सेनापति हो। फिर वह अस्त्र विधा में निपुण हो या न हो, वृद्ध हो या युवा हो ( इसकी चिन्ता अपने लोगों को नही करनी चाहिए) | तात ! वे भगवान ही हमारी विजय अथवा पराजय के मूल कारण हैं। हमार प्राण, राज्य, भाव, अभाव तथा सुख और दुख इन्हीं पर अवलम्बित है ।यही सबके कर्ता-धर्ता हैं। हमारे समस्त कार्यों की सिद्धि इन्हीं पर निर्भर करती है। अत: भगवान श्रीकृष्ण जिसके लिये प्रस्ताव करें, वही हमारी विशाल वाहिनीका प्रधान अधिनायक हो।
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