महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 151 श्लोक 37-58
एकपञ्चाशदधिकततम (151) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
अत: वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण अपना विचार प्रकट करें। इस समय रात्रि है। हम अभी सेनापति का निर्वाचन करके रात बीतने पर अस्त्र-शस्त्रों का अधिवासन (गन्ध आदि उपचारों द्वारा पूजन), कौतूक (रक्षाबन्धन) आदि तथा मंगलकृत्य (स्वस्तिवाचन आदि) करने अनन्तर श्रीकृष्ण के अधीन हो समरांगन की यात्रा करेंगे ।
वैश्म्पायनजी कहते हैं— राजन ! बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की ओर देखते हुए कहा— महाराज ! आप लोगों ने जिन-जिन वीरों के नाम लिये हैं, ये सभी मेरी राय में भी सेनापति होने के योग्य हैं; क्योंकि वे सभी बडे़ पराक्रमी योद्धा हैं । आपके शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति इन सबमें विद्यमान है। ये महान संग्राममें इन्द्र के मन में भी भय उत्पन्न कर सकते हैं। फिर पापात्मा और लोभी धृतराष्ट्र पुत्रों की तो बात ही क्या है । महाबाहु भरतनन्दन ! मैंने भी महान् युद्धकी सम्भावना देखकर तुम्हारा प्रिय करनेके लिये शान्ति-स्थापना के निमित्त उऋण हो गये हैं। दूसरोंके दोष बतानेवाले लोग भी अब हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं कर सकते ।धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन युद्धके लिये आतुर हो रहा है। वह मूर्ख और अयोग्य होकर भी अपनेको अस्त्रविद्या में पारंगत मानता है और दुर्बल होकर भी अपनेको बलवान् समझता है । ’अत: आप अपनी सेनाको युद्धके लिये अच्छी तरहसे सुसज्जित कीजिये; क्योंकि मेरे मत में शत्रुवधसे ही वशीभूत हो सकते हैं। वीर अर्जुन, क्रोधमें भरे हुए भीमसेन, यमराजके समान नकुल-सहदेव, सात्यकिसहित अमर्षशील ध्रष्ट्रद्युम्न, अभिमन्यु, द्रौपदीके पाँचों पुत्र, विराट, द्रुपद तथा अक्षौहिणी सेनाओं के अधिपति अन्यान्य भयंकर पराक्रमी नरेशोंको युद्धके लिये उद्यत देखकर धृतराष्ट्र के पुत्र रणभूमि में टिक नहीं सकेंगे। हमारी सेना अत्यन्त श्क्तिशाली, दुर्धर्ष और दुर्गम है। वह युद्धमें धृतराष्ट्र पुत्रों की सेनाका संहार कर डालेगी, इसमें संशय नहीं है। शत्रुदमन ! मैं ध्रष्टद्युम्न को ही प्रधान सेनापति होने योग्य मानता हूँ ।
वैशम्पायनजी कहते हैं—राजन् भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहने पर नरश्रेष्ठ पाण्डव बडे प्रसन्न हुए। फिर तो बुद्धके लिये सुसज्ज्ति हो जाओ, सुसज्जित हो जाओ, ऐसा कहते हुए समस्त सैनिक बडी उतावलीके साथ् दौड-धूप करने लगे। उस समय प्रसन्न चित्तवाले उन वीरोंका महान् हर्षनाद सब ओर गूँज उठा । सब ओर घोडे, हाथी और रथों का घोष होने लगा। सभी ओर शंख और दुन्दुभियों की भयानक ध्वनि गूँजने लगी । रथ, पैदल और हाथियोंसे भरी हुई यह भयंकर सेना उत्ताल तरगों से व्याप्त महासागरके समान क्षुब्ध हो उठी ।रणयात्राके लिये उद्यत हुए पाण्डव और उनके सैनिक सब ओर दौडते, पुकारते और कवच बाँधते दिखायी दिये। उनकी यह विशाल वाहिनी जलसे परिपूर्ण गंगाके समान दुर्गम दिखायी देती थी ।सेनाके आगे-आगे भीमसेन, कवचधारी माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, सुभद्राकुमार अभिमन्यु, द्रौपदीके सभी पुत्र, द्रुपद’कुमार ध्रष्टद्युम्न, प्रभद्रकगण और पाञ्चालदेशीय क्षत्रिय वीर चले। इन सबने भीमसेनको अपने आगे कर लिया था । तदन्तर जैसे पूर्णिमा के दिन बढते हुए समुद्रका कोलाहल सुनायी देता है, उसी प्रकार हर्ष और उत्साहमें भरकर युद्धके लिये यात्रा करनेवाले उन सैनिकों का महान् घोष सब ओर फैलकर मानो स्वर्गलोकतक जा पहुँचा । हर्षमें भरे हुए और कवच आदिसे सुसज्जित वे समस्त सैनिक शत्रु-सेनाको विदीर्ण करनेका उत्साह रखते थे। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर राजा युधिष्ठिर समस्त सैनिकों के बीचमें होकर चले ।सामान ढोनेवाली गाडी, बाजार, डेरे-तम्बू, रथ आदि सवारी, खजाना, यन्त्रचालित अस्त्र और चिकित्साकुशल वैद्य भी उनके साथ-साथ चले ।
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