महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 154 श्लोक 1-27
चतुष्पञ्चाशदधिकशततम (154) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
युधिष्ठिर का भगवान श्रीकृष्ण से अपने समयोचित कर्तव्य के विषय में पूछना, भगवान का युद्ध को ही कर्तव्य बताना तथा इस विषय में युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण के वचनों का समर्थन
वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! भगवान् श्रीकृष्णके पूर्वोंक्त कथनका स्मरण करके युधिष्ठिर ने पुन: उनसे पूछा—भगवान् ! मन्दबुद्धि दुर्योधनने क्यों ऐसी बात कही? ‘अच्युत ! इस वर्तमान समयमें हमारे लिये क्या करना उचित है ?हम कैसा बर्ताव करें ?जिससे अपने धर्मसे नीचे न गिरें । ‘वासुदेव ! दुर्योधन, कर्ण और शकुनिके तथा भाइयों सहित मेरे विचारों को भी आप जानते हैं । ‘विदुरने और भीष्मजीने भी जो बातें कही हैं, उन्हें भी आपने सुना है। विशालबुद्धे ! माता कुन्तीका विचार भी आपने पूर्णरूपसे सुन लिया है ।‘महाबाहो ! इन सब विचारों को लांघकर स्वंय ही इस विषयपर बारंबार विचार करके हमारे लिये जो उचित हो, उसे नि:संकोच कहिये‘। धर्मराज का यह धर्म और अर्थसे युक्त वचन सुनकर भगवान् मेघ और दुन्दुभिके समान गम्भीर स्वरमें यह बात कही । श्रीकृष्ण बोले—मैंने जो धर्म और अर्थसे युक्त हितकर बात कही है, वह छल-कपट करनेमें ही कुशल कुरूवंशी दुर्योधन मनमें नहीं बैठती है । खोटी बुद्धिवाला वह दुष्ट न भीष्मकी, न विदुरकी और न मेरी ही बात सुनता है। वह सबकी सभी बातोंको लाँघ जाता है । दुरात्मा दुर्योधन कर्णका आश्रय लेकर सभी वस्तुओंको जीती हुई ही समझता है। इसीलिये न यह धर्मकी इच्छा रखता है और न ही यशकी ही कामना करता है ।पापपूर्ण निश्चयवाले उस दुरात्मा दुर्योधनने तो मुझे भी कैद कर लेनेकी आज्ञा दे दी थी ; परंतु वह उस मनोरथ को पूर्ण न कर सका । अच्युत ! यहाँ भीष्म तथा द्रोणाचार्य भी सदा उचित बात नहीं कहते हैं । विदुरको छोडकर अन्य सब लोग दुर्योधन का ही अनुसरण कर लेते हैं ।सुबलपुत्र शकुनि, कर्ण और दुशासन—इन तीनों मूर्खोंने मूढ और असहिष्णू दुर्योधन के समीप आपके विषयमें अनेक अनुचित बातें कही थी ।उन लोगोंने जो-जो बातें कहीं, उन्हं यदि मैं पुन: यहाँ दोहराऊँ तो इससे क्या लाभ है ।थोडेमें इतना ही समझ लीजिये कि वह दुरात्मा कौरव आपके प्रति न्याययुक्त बर्ताव नहीं कर रहा है। ।इन सब राजाओंमें , जो आपकी सेनामें स्थित हैं, जो पाप और अमंगलकारक भाव नहीं है, वह सब अकेले दुर्योधनमें विद्यमान हैं । हमलोग भी बहुत अधिक त्याग करके (सर्वस्व खोकर) कभी किसी भी दशामें कौरवोंके साथ संधिकी इच्छा नहीं रखते हैं । अत: इसके बाद हमारे लिये युद्ध ही करना उचित है ।
वैशम्पायनजी कहते हैं—भरतनन्दन ! भगवान् श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर सब राजा कुछ न बोलते हुए केवल महाराज युधिष्ठिरके मुहँ की ओर देखने लगे । युधिष्ठिर ने राजाओंका अभिप्राय समझकर भीम, अर्जुन तथा नकुल-सहदेवके साथ उन्हें युद्धके लिये तैयार हो जानेकी आज्ञा दे दी ।उस समय युद्धके लिये तैयार होनेकी आज्ञा मिलते ही समस्त योद्धा हर्षसे खिल उठे, फिर तो पाण्डवोंके सैनिक किलकारियों करने लगे ।धम्रराज युधिष्ठिर यह देखकर कि युद्ध छिडनेपर अवध्य पुरूषोंका भी वध करना पडेगा, खेदसे लम्बी सांसे खींचते हुए भीमसेन और अर्जुनसे इस प्रकार बोले -- ।जिससे बचनेके लिये मैंने वनवासका कष्ट स्वीकार किया और नाना प्रकारके दुख सहन किये, वही महान् अनर्थ मेरे प्रयत्न से भी टल न सका । वह हमलोगों पर आना ही चाहता है। यद्यपि उसे टालनेके लिये हमारी ओरसे पूरा प्रयत्न किया गया, किंतु हमारे प्रयाससे उसका निवारण नहीं हो सका और जिसके लिये कोई प्रयत्न नहीं किया गया था, वह महान् कलह स्वत: हमारे ऊपर आ गया ।‘जो लोग मारने योग्य नहीं हैं, उनके साथ युद्ध करना कैसे उचित होगा ?वृद्ध गुरूजनोंका वध करके हमें विजय किस प्रकार प्राप्त होगा ?।धर्मराजकी यह बात सुनकर शत्रुओंको संताप देनेवाले सव्यवाची अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णकी कही हुर्इ बातोंको उनसे कह सुनाया । वे कहने लगे-- ‘राजन् ! देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने माता कुन्ती तथा विदुरजीके कहे जो वचन आपको सुनाये थे, उनपर आपने पूर्णरूप से विचार किया होगा ।‘मेरा तो यह निश्चित मत दे कि वे दोनों अधर्मकी बात नहीं है‘।अर्जुनका यह वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण भी युधिष्ठिरसे मुसकराते हुए बोले-- ‘हाँ‘ अर्जुन ठीक कहते हैं‘। महाराज जनमेजय ! तदन्तर योद्धाओंसहित पाण्डव युद्धके लिये दृढ निश्चय करके उस रातमें वहाँ सुखपूर्वक रहे ।
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