महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 165 श्लोक 1-22
पञ्चषष्टयधिकशततम (165) अध्याय: उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्या पर्व)
दुर्योधनके पूछनेपर भीष्मका कौरवपक्षके रथियों और अतिरथियोंका परिचय देना
धृतराष्ट्र ने पूछा—संजय ! जब अर्जुनने युद्धभूमिमें भीष्मका वध करनेकी प्रतिज्ञा कर ली, तब दुर्योधन आदि मेरे मूर्ख पुत्रोंने क्या किया। अर्जुन सुदृढ धनुष धारण करते हैं। इसके सिवा भगवान श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं; अत: मैं रणभूमिमें अपने पिता गंगानन्दन भीष्मको उनके द्वारा मारा गया ही मानता हूं। अर्जुनकी उस प्रतिज्ञा को सुनकर अमित बुद्धिमान योद्धाओंमें श्रेष्ठ महाधनुर्धर भीष्मने क्या कहा। कौरवकुलका भार वहन करनेवाले परम बुद्धिमान् और पराक्रमी गंगापुत्र भीष्मने सेनापतिका पद प्राप्त करनेके पश्चात् युद्धके लिये कौन सी की। वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! तदनन्तर संजयने अमिततेजस्वी कुरूवद्ध भीष्मने जैसा कहा था, वह सब कुछ राजा धृतराष्ट्र को बताया। संजय बोले—नरेश्वर ! सेनापतिका पद प्राप्त करके शान्तनुनन्दन भीष्मने दुर्योधनका हर्ष बढाते हुए से उससे यह बात कही-राजन! मैं हाथ में शक्तिश धारण करनेवाले देवसेनापति कुमार कार्तिकेयको नमस्कार करके अब तुम्हारी सेनाका अधिपति होऊँगा, इसमें संशय नहीं है। मुझे सेनासम्बन्धी प्रत्येक कर्मका ज्ञान है। मैं नाना प्रकारके व्यूहोंके निर्माणमें भी कुशल हूं। तुम्हारी सेनामें जो वेतनभोगी अथवा वेतन न लेनेवाले मित्रसेना के सैनिक हैं, उन सबसे यथायोग्य काम करा लेनेकी भी कला मुझे ज्ञात है। महाराज ! मैं युद्धके लिये यात्रा करने, तथा विपक्षीके चलाये हुए अस्त्रोंका प्रतीकार करनेके विषयमें जैसा बृहस्पति जानते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण आवश्यक बातों की विशेष जानकारी रखता हूं। मुझमें देवता, गन्धर्व और मनुष्य—तीनोंकी ही व्यूहरचना का ज्ञान है। उनके द्वारा मैं पाण्डवोंको मोहित कर दूंगा। अत: तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिए। राजन् ! मैं तुम्हारी सेनाकी रक्षा करता हुआ शास्त्रीय विधानके अनुसार यथार्थरूपसे पाण्डवों के साथ युद्ध करूंगा। अत: तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जाये। दुर्योधन बोला—महाबाहु गंगानन्दन ! मैं आपसे सत्य कहता हूं, मुझे असुरोंसे भी कभी भय नहीं होता है। फिर जब आपजैसे दुर्धर्ष वीर हमारे सेनापतिके पदपर स्थित हैं तथा युद्धका अभिन्न्दन करनेवाले पुरूषसिंह द्रोणाचार्य जैसे योद्धा मेरे लिये युद्धभूमिमें उपस्थित हैं, तब तो मुझे भय हो ही कैसे सकता है। कुरूश्रेष्ठ ! जब आप दोनों पुरूषप्रवर वीर मेरी विजयके लिये यहाँ खडे हैं, तब तो अवश्य ही मेरे लिये देवताओंका राज्य भी दुर्लभ नहीं है। कुरूनन्दन ! आप शत्रुओंके तथा अपने पक्षके रथियों और अतिरथियोंकी संख्याको पूर्णरूपसे जानते हैं, अत: मैं इन सब राजाओं के साथ आपके मुंहसे इस विषयको सुनना चाहता हूं। भीष्म बोले- राजेन्द्र गान्धारीनन्दन ! तुम अपनी सेनाके रथियोंकी संख्या श्रवण करो। भूपाल ! तुम्हारी सेनामें जो रथी और अतिरथी हैं, उन सबका वर्णन करता हूं। तुम्हारी सेनामें रथियोंकी संख्या अनेक सहस्र, लक्ष और अर्बुदों (करोडों) तक पहुंच जाती है। तथापि उनमें जो प्रधान-प्रधान हैं, उनके नाम मुझसे सुनो। सबसे पहले अपने दुशासन आदि सौ सहोदर भाइयोंके साथ तुम्हीं बहुत बडे उदार रथी हो। तुम सब लोग अस्त्रविधा के ज्ञाता तथा छेदन-भेदनमें कुशल हो। रथपर और हाथीकी पीठपर बैठकर भी युद्ध कर सकते हो। गदा, प्राप्त तथा ढाल-तलवार के प्रयोगमें भी कुशल हो। तुमलोग रथके संचालन और अस्त्रोंके प्रहारमें भी निपुण हो। अस्त्रविद्या के ज्ञाता तथा भार उठाने में भी समर्थ हो। धनुष बाण की विद्या में तो तुमलोग द्रोणाचार्य और कृपाचार्य के सुयोग्य शिष्य हो। धृतराष्ट्र के ये सभी मनस्वी पुत्र पाण्डवों के साथ वैर बांधे हुए हैं। अत: युद्ध में उन्मत्त होकर लडनेवाले पांचाल योद्धाओं को ये समरभूमि मे मार डालेंगे।
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