महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 192 श्लोक 1-21
द्विनवत्यधिकशततम (192) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
शिखण्डी को पुरूषत्व की प्राप्ति, द्रुपद और हिरण्यवर्मा की प्रसन्नता, स्थूणाकर्ण को कुबेर को शाप तथा भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
भीष्म कहते हैं- भरतश्रेष्ठ कौरव! शिखण्डिनी की यह बात सुनकर दैवपीड़ित यक्ष ने मन-ही-मन कुछ सोचकरकहा- ‘भद्रे! तुम जैसा कहती हो वैसा हो जो जायगा; परंतु वह मेरे दु:ख का कारण होगा, तथापि मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा। इस विषय में जो मेरी शर्त है, उसे सुनो। मैं तुम्हें अपना पुरूषत्व दूंगा और तुम्हारा स्त्रीत्व स्वयं धारण करूंगा; किंतु कुछ ही काल के लिये अपना यह पुरूषत्व तुम्हें दुंगा। उस निश्चित समय के भीतर ही तुम्हें मेरा पुरूषत्व लौटाने के लिये यहां आ जाना चाहिये। इसके लिये मुझे सच्चा वचन दो । ‘मैं सिद्धसंकल्प, सामर्थ्यशाली, इच्छानुसार सर्वत्र विचरने वाला तथा आकाश में भी चलने की शक्ति रखने वाला हूं। तुम मेरी कृपा से केवल अपने नगर और बन्धु-बान्धवों की रक्षा करो । ‘राजकुमारी! इस प्रकार मैं तुम्हारा स्त्रीत्व धारण करूंगा, कार्य पूर्ण हो जाने पर तुम मेरा पुरूषत्व लौटा देने की मुझसे सच्ची प्रतिज्ञा करो; तब मैं तुम्हारा प्रिय कार्य करूंगा’ । शिखण्डिनी बोली- भगवन्! तुम्हारा यह पुरूषत्व मैं समय पर लौटा दूंगा। निशाचर! तुम कुछ ही समय के लिये मेरा स्त्रीत्व धारण कर लो । दशार्णदेश की स्वामी राजा हिरण्यवर्मा के लौट जाने पर मैं फिर कन्या ही हो जाऊंगी और तुम पूर्ववत् पुरूष हो जाओगे । भीष्मजी कहते हैं- नरेश्वर! इस प्रकार बात करके उन्होंने परस्पर प्रतिज्ञा कर ली तथा उन दोनों ने एक-दूसरे के शरीर में अपने-अपने पुरूषत्व और स्त्रीत्व का संक्रमण करा दिया। भारत! स्थूणाकर्ण यक्ष ने उस शिखण्डिनी के स्त्रीत्व को धारण कर लिया और शिखण्डिनी ने यक्ष का प्रकाशमान पुरूषत्व प्राप्त कर लिया । राजन्! इस प्रकार पुरूषत्व पाकर पाञ्चालराजकुमार शिखण्डी बडे़ हर्ष के साथ नगर में आया और अपने पिता से मिला । उसने जैसे जो वृत्तान्त हुआ था, वह सब राजा द्रुपद से कह सुनाया। उसकी यह बात सुनकर राजा द्रुपद को अपार हर्ष हुआ । पत्नीसहित राजा को भगवान् महेश्वर के दिये हुए वर का स्मरण हो आया। तदनन्तर राजा द्रुपद ने दशार्णराज के पास दूत भेजा और यह कहलाया कि मेरा पुत्र पुरूष है। आप मेरी इस बात पर विश्वास करें इधर दु:ख और शोक में डूबे हुए दशार्णराज ने सहसा पाञ्चालराज द्रुपद पर आक्रमण किया । काम्पिल्य नगर के निकट पहुंचकर दशार्णराज ने वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ एक ब्राह्मण को सत्कारपूर्वक दूत बनाकर भेजा । और कहा- ‘दूत! मेरे कथनानुसार राजाओं में अधम उस पाञ्चालनरेश से कहिये। दुर्मते! तुमने जो अपनी कन्या के लिये मेरी कन्या का वरण किया था, उस घंमड का फल तुम्हें आज देखना पडे़गा, इसमें संशय नहीं है’ । नृपश्रेष्ठ! दशार्णराज का यह संदेश पाकर और उन्हीं की प्रेरणा से दूत बनाकर वे ब्राह्मणदेवता काम्पिल्य नगर में आये ।नगर में आकर वे पुरोहित ब्राह्मण महाराज द्रुपद से मिले। पाञ्चालराज ने सत्कारपूर्वक उन्हें अर्घ्य तथा गौ अर्पण की। उनके साथ राजकुमार शिखण्डी भी थे। राजेन्द्र! पुरोहित ने वह पूजा ग्रहण नहीं की और इस प्रकार कहा- । ‘राजन्! वीरवर राजा हिरण्यवर्मा ने जो संदेश दिया है, उसे सुनिये। पापाचारी दुबुद्धि नरेश! तुम्हारी पुत्री के द्वारा मैं ठगा गया हुं। वह पाप तुमने ही किया है; अत: उसका फल भोगी। नरेश्वर! युद्ध के मैदान में आकर मुझे युद्ध का अवसर दो। मैं मन्त्री, पुत्र और बान्धवोंसहित तुम्हारे समस्त कुल को उखाड़ फेंकुंगा’ ।
« पीछे | आगे » |