महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 37 श्लोक 48-64
सप्तत्रिंश (37) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
जो अर्थ की पूर्ण सिद्धि चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिये। जैसे स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता, उसी प्रकार धर्म से अर्थ अलग नहीं होता। जिसकी बुद्धि पाप से हटाकर कल्याण में लगा दी गयी है, उसने संसार में जो भी प्रकृति और विकृति है-उस सबको जान लिया है। जो समयानुसार धर्म, अर्थ ओर काम का सेवन करता है, वह इस लोक ओर परलोक में भी धर्म, अर्थ और कामको प्राप्त करता है। राजन्! जो क्रोध और हर्ष के उठे हुए वेग को रोक लेता है ओर आपत्ति में भी मोह को प्राप्त नहीं होता, वही राजलक्ष्मी का अधिकारी होता है। राजन्! आपका कल्याण हो, मनुष्य में सदा पांच प्रकार का बल होता है; उसे सुनिये। जो बाहुबल नामक प्रथम बल है, वह निकृष्ट बल कहलाता है; मंत्री का मिलना दूसरा बल है, मनीषीलोग धन के लाभ को तीसरा बल बताते हैं; और राजन्! जो बाप-दादों से प्राप्त हुआ मनुष्य का स्वाभाविक बल (कुटम्बका बल) है, वह ‘अभिजात’ नामक चौथा बल है। भारत! जिससे इन सभी बलों का संग्रह हो जाता है तथा जो सब बलों में श्रेष्ठ बल है, वह पांचवां ‘बुद्धिका बल’ कहलाता है। जो मनुष्य बहुत बड़ा अपकार कर सकता है, उस पुरूष के साथ वैर ठानकर इस विश्र्वास पर निश्र्चिन्त न हो जाय कि मैं उससे दूर हूं (वह मेरा कुछ नहीं कर सकता)। ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा, जो स्त्री, राजा, सांप, पढ़े हुए पाठ, सामर्थ्यशाली व्यक्ति, शत्रु, भोग और आयुपर पूर्ण विश्र्वास कर सकता है ? जिसको बुद्धि के बाण से मारा गया है, उस जीव के लिये न कोई वैद्य है, न दवा है, न होम, न मंत्र, न कोई माङ्गलिक कार्य, न अथर्ववेदोक्त प्रयोग और न भलीभांति सिद्ध जड़ी-बूटी ही है। भारत! मनुष्यों को चाहिये कि वह सांप, अग्नि, सिंह ओर अपने कुल में उत्पन्न व्यक्ति का अनादर न करे; क्योंकि ये सभी बड़े तेजस्वी होते हैं। संसार में अग्नि एक महान् तेज है, वह काठ में छिपी रहती है; किंतु जबतक दूसरे लोग प्रजवलित न कर दें, तबतक वह उस काठ को नहीं जलाती। वहीं अग्नि यदि काष्ठ से मथकर उद्दीप्त कर दी जाती है तो वह अपने तेजसे उस काठ को, जंगल को तथा दूसरी वस्तुओं को भी जल्दी ही जला डालती है। इसी प्रकार अपने कुल में उत्पन्न वे अग्नि के समान तेजस्वी पाण्डव क्षमाभाव से युक्त और विकारशून्य हो काष्ठ में छिपी अग्नि की तरह गुप्तरूप से (अपने गुण एवं प्रभाव को छिपाये हुए) स्थित हैं। अपने पुत्रोंसहित आप लता के समान हैं ओर पाण्डव महान् शालवृक्ष के सदृश हैं; महान् वृक्ष का आश्रय लियेबिना लता कभी बढ़ नहीं सकती। राजन्! अम्बिकानंदन! आपके पुत्र एक वन हैं और पाण्डवों को उसके भीतर रहने वाले सिंह समझिये । तात! सिंह से सूना हो जाने पर वन नष्ट हो जाता है और उसके बिना सिंह भी नष्ट हो जाता हैं।
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