महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 39 श्लोक 1-15
एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
धृतराष्ट्र के प्रति विदुरजी का नीतियुक्त उपदेश
धृतराष्ट्र ने कहा-विदुर! यह पुरूष ऐश्र्वर्य की प्राप्ति ओर नाश में स्वतंत्र नहीं है। ब्रह्मा ने धागे से बंधी हुई कठपुतीली की भांति इसे प्रारब्ध के अधीन कर रक्खा है; इसलिये तुम कहते चलो, मैं सुनने के लिये धैर्य धारण किये बैठा हूं।
विदुरजी बोले-भारत! समय के विपरीत यदि बृहस्पति भी कुछ बोलें तो उनका अपमान ही होगा ओर उनकी बुद्धि की भी अवज्ञा ही होगी। संसार में कोई मनुष्य दान देने से प्रिय होता है, दूसरा प्रिय वचन बोलने से प्रिय होता है और तीसरा मंत्र तथा औषध के बल से प्रिय होता है; किंतु जो वास्तव में प्रिय है, वह तो सदा प्रिय ही है। जिससे द्वेष हो जाता है, वह न साधु, न विद्वान् और न बुद्धिमान् ही जान पड़ता है। प्रिय व्यक्ति(मित्र आदि) के तो सभी कर्मशुभ ही प्रतीत होते हैं और शत्रु के सभी कार्य पापमय। राजन्! दुर्योधन के जन्म लेते ही मैंने कहा था कि केवल इसी एक पुत्र को आप त्याग दें। इसके त्याग से सौ पुत्रों की वृद्धि होगी और इसका त्याग न करने से सौ पुत्रों का नाश होगा। जो वृद्धि भविष्य में नाश का कारण बने, उसे अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिये और उस क्षय का भी बहुत आदर करना चाहिये, जो आगे चलकर अभ्युदयका कारण हो। महाराज! वास्तव में जो क्षय वृद्धि का कारण होता है, वह क्षय नहीं है; किंतु उस लाभ को भी क्षय ही मानना चाहिये, जिसे पाने से बहुत-से लाभों का नाश हो जाय। धृतराष्ट्र! कुछ लोग गुण से समृद्ध होते हैं और कुछ लोग धन से। जो धन के धनी होते हुए भी गुणों से हीन हैं, उन्हें सर्वथा त्याग दीजिये। धृतराष्ट्र ने कहा-विदुर! तुम जो कुछ कह रहे हो, परिणाम में हितकर है; बुद्धिमान् लोग इसका अनुमोदन करते हैं। यह भी ठीक है कि जिस ओर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है, तो भी मैं अपने बेटे का त्याग नहीं कर सकता।
विदुरजी बोले-राजन्! जो अधिक गुणों से सम्पन्न और विनयी है, वह प्राणियों का तनिक भी संहार होते देख उसकी कभी उपेक्षा नहीं कर सकता। जो दूसरों की निंदा में ही लगे रहते है, दूसरो को दु:ख देने और आपस में फूट डालने के लिये सदा उत्साह के साथ प्रयत्न करते हैं, जिनका दर्शन दोष से भरा (अशुभ) है और जिनके साथ रहने में भी बहुत बड़ा खतरा है, ऐसे लोगों से धन लेने में महान् दोष है और उन्हें देने में बहुत बड़ा भय है। दूसरों में फूट डालने का जिनका स्वभाव है, जो कामी,निर्लज्ज, शठ और प्रसिद्ध पापी हैं,वे साथ रखने के कारण अयोग्य-निंदित माने गये हैं। उपर्युक्त दोषों के अतिरिक्त और भी जो महान् दोष हैं, उनसे युक्त मनुष्यों का त्याग कर देना चाहिये। सौहार्दभाव निवृत्त हो जाने पर नीच पुरूषों का प्रेम नष्ट हो जाता है, उस सौहार्द से होने वाले फलकी सिद्धि और सुख का भी नाश हो जाता है। फिर वह नीच पुरूष निंदा करने के लिये यत्न करता है, थोड़ा भी अपराध हो जाने पर मोहवश विनाश के लिेये उद्योग आरम्भ कर देता है। उसे तनिक भी शांति नहीं मिलती।
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