महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-11
द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)
सनत्सुजातजी के द्वारा घृतराष्ट्र के विविध प्रश्नों का उत्तर
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर बुद्धिमान् एवं महामना राजा धृतराष्ट्र ने विदुर के कहे हुए उस वचन का भली भांति आदर करके उत्कृष्ट ज्ञान की इच्छा से एकान्त में सनत्सुजात मुनि से प्रश्न किया।
धृतराष्ट्र बोले- सनत्सुजातजी! मैं यह सुना करता हूं कि मृत्यु है ही नहीं, ऐसा आपका सिद्धान्त है। साथ ही यह भी सुना है कि देवता और असुरों ने मृत्यु से बचने के लिये ब्रह्मचर्य का पालन किया था। इन दोनों में कौन-सी बात यथार्थ है?
सनत्सुजात ने कहा- राजन्! (इस विषय में दो पक्ष हैं) मृत्यु है और वह (ब्रह्मचर्यपालन रूप) कर्म से दूर होती है- यह एक पक्ष है और ‘मृत्यु है ही नहीं’- यह दूसरा पक्ष है। परंतु यह बात जैसी है, वह मैं तुम्हें बताता हूं, सुनो और मेरे कथन में संदेह न करना। क्षत्रिय! इस प्रश्न के उक्त दोनों ही पहलुओं को सत्य समझो। कुछ विद्वानों ने मोहवश इस मृत्यु की सत्ता स्वीकार की है; किंतु मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद ही मृत्यु है और अप्रमाद ही अमृत है। प्रमाद के कारण असुरगण (आसुरी सम्पत्ति वाले) मृत्यु से पराजित हुए और अप्रमाद से ही देवगण (दैवी सम्पत्ति वाले) ब्रह्मस्वरूप हुए। यह निश्र्चय है कि मृत्यु व्याघ्र के समान प्राणियों का भक्षण नहीं करती, क्योंकि उसका कोई रूप देखने में नहीं आता। कुछ लोग इस प्रमाद से भिन्न ‘यम’ को मृत्यु कहते हैं और हृदय से दृढ़तापूर्वक पालन किये हुए ब्रह्मचर्य को ही अमृत मानते हैं। यमदेव पितृलोक में राज्य-शासन करते हैं। वे पुण्यात्माओं के लिये मङ्गलमय और पापियों के लिये अमङ्गलमय हैं। इन यम की आज्ञा से ही क्रोध, प्रमाद और लोभरूपी मृत्यु मनुष्यों के विनाश में प्रवृत्त होती हैं। अहंकार के वशीभूत होकर विपरीत मार्ग पर चलता हुआ कोई भी मनुष्य परमात्मा का साक्षात्कार नहीं कर पाता। मनुष्य (क्रोध, प्रमाद और लोभ से) मोहित होकर अहंकार के अधीन हो इस लोक से जाकर पुन: पुन: जन्म-मरण के चक्कर में पड़ते हैं। मरने के बाद उनके मन, इन्द्रिय और प्राण भी साथ जाते हैं। शरीर से प्राणरूपी इन्द्रियों का वियोग होने के कारण मृत्यु ‘मरण’ संज्ञा को प्राप्त होती है। प्रारब्ध कर्मका उदय होने पर कर्म के फल में आसक्ति रखने वाले लोग (देहत्याग के पश्चात्) परलोक का अनुगमन करते है; इसीलिये वे मृत्यु को पार नहीं कर पाते। देहा-भिमानी जीव परमात्मा साक्षात्कार के उपाय को न जानने से विषयों के उपभोग के कारण सब ओर (नाना प्रकारकी योनियों में) भटकता रहता है। इस प्रकार विषयों का जो भोग है, वह अवश्य ही इन्द्रियों को महान् मोह में डालने वाला है और इन झूठे विषयों में राग रखने वाले मनुष्य की उनकी ओर प्रवृत्ति होनी स्वाभाविक है। मिथ्याभोगों में आसक्ति होने से जिसके अन्त:करण की ज्ञान शक्ति नष्ट हो गयी है, वह सब ओर विषयों का ही चिन्तन करता हुआ मन-ही-मन उनका आस्वादन करता है। पहले तो विषयों का चिन्तन ही लोगों को मारे डालता है। इसके बाद वह काम और क्रोध को साथ लेकर पुन: जल्दी ही प्रहार करता है। इस प्रकार ये विषय-चिन्तन (काम और क्रोध) ही विवेकहीन मनुष्यों को मृत्यु के निकट पहुंचाते हैं; परंतु जो स्थिर बुद्धिवाले पुरूष हैं, वे धैर्य से मृत्यु के पार हो जाते हैं।
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