महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 42 श्लोक 12-21

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द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद

(अत: जो मृत्यु को जीतने की इच्छा रखता है,) उसे चाहिये कि परमात्मा का ध्‍यान करके विषयों को तुच्छ मानकर उन्हें कुछ भी न गिनते हुए उनकी कामनाओं का उत्पन्न होते ही नष्‍ट कर डाले। इस प्रकार जो विद्वान् विषयों की इच्छा को मिटा देता है, उसको [साधारण प्राणियों की] मृत्यु की भांति मृत्यु नहीं मारती (अर्थात् वह जन्म-मरण से मु‍क्त हो जाता है)। कामनाओं के पीछे चलने वाला मनुष्‍य कामनाओं के साथ ही नष्‍ट हो जाता है; परंतु ज्ञानी पुरूष कामनाओं का त्याग कर देने पर जो कुछ भी जन्म-मरण रूप दु:ख है, उन सबको वह नष्‍ट कर देता है। काम ही समस्त प्राणियों के लिये मोहक होने के कारण तमोमय और अज्ञानरूप है तथा नरक के समान दु:खदायी देखा जाता है। जैसे मद्यपान से मोहित हुए पुरूष चलते- चलते गड्ढे़ की ओर दौड़ पड़ते हैं, वैसे ही कामी पुरूष भोगों में सुख मानकर उनकी ओर दौड़ते हैं। जिसके चित्त की वृत्तियां विषयभोगों से मोहित नहीं हुई हैं, उस ज्ञानी पुरूष का इस लोक में तिनकों के बनाये हुए व्याघ्र के समान मृत्यु क्या बिगाड़ सकती है? इसलिये राजन्! विषयभोगों के मूल कारणरूप अज्ञान को नष्‍ट करने की इच्छा से दूसरे किसी भी सांसारिक पदार्थ को कुछ भी न गिनकर उसका चिन्तनत्याग देना चाहिये। यह जो तुम्हारे शरीर के भीतर अन्तरात्ता है, मोह के वशीभूत होकर यही क्रोध, लोभ (प्रमाद) और मृत्युरूप हो जाता है। इस प्रकार मोह से होने वाली मृत्यु को जानकर जो ज्ञाननिष्‍ठ हो जाता है, वह इस लोक में मृत्यु से कभी नहीं डरता। उसके समीप आकर मृत्यु उसी प्रकार नष्‍ट हो जाती है, जैसे मृत्यु के अधिकार में आया हुआ मरण-धर्मा मनुष्‍य।

धृतराष्‍ट्र बोले- द्विजातियों के लिये यज्ञों द्वारा जिन पवित्रतम सनातन एवं श्रेष्‍ठ लोकों की प्राप्ति बतायी गयी हैं, यहां वेद उन्हीं को परम पुरूषार्थ कहते हैं। इस बात को जानने वाला विद्वान् उत्तम कर्मों का आश्रय क्यों न लें।

सनत्सुजात ने कहा- राजन्! अज्ञानी पुरूष इस प्रकार भिन्न-भिन्न लोकों में गमन करता है तथा वेद कर्म के बहुत-से प्रयोजन भी बताते हैं; परंतु जो निष्‍काम पुरूष है, वह ज्ञान मार्ग के द्वारा अन्य सभी मार्गों का बाध करके परमात्म स्वरूप होता हुआ ही परमात्मा को प्राप्त होता है।

धृतराष्‍ट्र बोले- विद्वन्! यदि वह परमात्मा ही क्रमश: इस सम्पूर्ण जगत् के रूप में प्रकट होता है तो उस अजन्मा और पुरातन पुरूष पर कौन शासन करता है? अथवा उसे इस रूप में आने की क्या आवश्‍यकता है और क्या सुख मिलता है?- यह सब मुझे ठीक-ठीक बताइये।

सनत्सुजात ने कहा- तुम्हारे इस प्रश्‍न के अनुसार जीव और ब्रह्म का विशेष भेद प्राप्त होता है, जिसे स्वीकार कर लेने पर वेद विरोध रूप महान् दोष की प्राप्ति होती है। अतएव अनादि माया के सम्बन्ध से जीवों का कामसुख आदि से सम्बन्ध होता रहता है। ऐसा होने पर भी जीव की महत्ता नष्‍ट नहीं होती; क्योंकि माया के सम्बन्ध से जीव के देहादि पुन: उत्पन्न होते रहते हैं। जो नित्यस्वरूप भगवान् हैं, वे ही परब्रह्म माया के सहयोग से इस विश्‍व ब्रह्माण्‍ड की सृष्टि करते हैं। वह माया उन्हीं परब्रह्म की शक्ति है। महात्मा पुरूष इसे मानते हैं। इस प्रकार के अ‍र्थ के प्रतिपादन में वेद भी प्रमाण हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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