महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 43 श्लोक 30-45
त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)
(वैराग्यपूर्वक) पदार्थों के त्याग से जो निष्कामता आती है, वह स्वेच्छापूर्वकउनका उपभोग करने से नहीं आती। अधिक धन-सम्पति के संग्रह से निष्कामता नहीं सिद्ध होती तथा कामनापूर्वक के लिये उसका उपभोग करने से भी काम का त्याग नहीं होता। जो पुरूष सब गुणों से युक्त और धनवान् हो, यदि उसके किये हुए कर्मसिद्ध न हों तो उनके लिये दु:ख एवं ग्लानि न करे। कोई अप्रिय घटना हो जाय तो कभी व्यथा को न प्राप्त हो (यह चोथा त्याग है)। अपने अभीष्ठ पदार्थ-स्त्री पुत्रादि की कभी याचना न करे (यह पांचवां त्याग है )। सुयोग्य याचकके आ जाने पर उसे दान करे (यह छठा त्याग है)। इन सबसे कल्याण होता है। इन त्यागमय गुणों से मनुष्य अप्रमादी होता है। उस अप्रमाद के भी आठ गुण माने गये हैं-सत्य, ध्यान, अध्यात्मविषयक विचार, समाधान, वैराग्य, चौरी न करना, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये आठ गुण त्याग और अप्रमाद दोनों के ही समझने चाहिये । इसी प्रकार जो मद के अठारह दोष पहले बताये गये हैं, उनका सर्वथा त्याग करना चाहिये। प्रमाद के आठ दोष हैं, उन्हें भी त्याग देना चाहिये। भारत! पांच इन्द्रियां और छठा मन-इनकी अपने-अपने विषयों में जो भोगबुद्धि से प्रवृत्ति होती हैं, छ: तो ये ही प्रमादविषयक दोष हैं और भूतकाल की चिन्ता तथा भविष्य-की आशा- दो दोष ये हैं। इन आठ दोषों से मुक्त पुरूष सुखी होता है। राजेन्द्र! तुम सत्यस्वरूप हो जाओ, सत्य में ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं। वे दम, त्याग और अप्रमाद आदि गुण भी सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति कराने वाले हैं; सत्य में ही अमृत की प्रतिष्ठा है। दोषों को निवृत्त करके ही यहां तप और व्रत का आचरण करना चाहिये, यह विधाता का बनाया हुआ नियम है। सत्य ही श्रेष्ठ पुरूषों का व्रत है। मनुष्य को उपर्युक्त दोषों से रहित और गुणों से युक्त होना चाहिये। ऐसे पुरूष का ही विशुद्ध तप अत्यन्त समृद्ध होता है। राजन्! तुमने जो मुझसे पूछा है, वह मैंने संक्षेप से बता दिया। यह तप जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था के कष्ट को दूर करने वाला, पापहारी तथा परम पवित्र है।
धृतराष्ट्र ने कहा- मुने! इतिहास-पुराण जिनमें पांचवां है, उन सम्पूर्ण वेदों के द्वारा कुछ लोगों का विशेष रूप से नाम लिया जाता है (अर्थात् वे पञ्चवेदीह कहलाते हैं), दूसरे लोग चतुर्वेदी और त्रिवेदी कहे जाते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग द्विवेदी, एकवेदी तथा अनृचे कहलाते हैं। इनमें से कौन-से ऐसे हैं, जिन्हें मैं निश्चित रूप से ब्राह्मण समझूं?
सनत्सुजात ने कहा- राजन्! सृष्टि के आदि में वेद एक ही थे, परंतु न समझने के कारण (एक ही वेद के) बहुत-से विभाग कर दिये गये हैं। उस सत्यस्वरूप एक वेद के सारतत्त्व परमात्मा में तो कोई बिरला ही स्थित होता है। इस प्रकारवेद के तत्त्व को न जानकर भी कुछ लोग ‘मैं विद्वान् हूं’ ऐसा मानने लगते हैं; फिर उनकी दान, अध्ययन और यज्ञादि कर्मों में (सांसारिक सुख की प्राप्तिरूप फल के) लोभ से प्रवृत्ति होती हैं। वास्तव में जो सत्यस्वरूप परमात्मा से च्युत हो गये हैं, उन्हीं का वैसा संकल्प होता है। फिर सत्यरूप वेद के प्रामाण्य-का निश्चय करके ही उनके द्वारा यज्ञों का विस्तार (अनुष्ठान) किया जाता है।
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