महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-16
एकोनपञ्चाशत्तम (49) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिये समझाते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन की महिमा बताना एवं कर्णपर आक्षेप करना, कर्ण की आत्मप्रशंसा, भीष्म के द्वारा उसका पुन: उपहास एवं द्रोणाचार्य द्वारा भीष्म जी के कथन का अनुमोदन
वैशम्पायन जी कहते हैं-भारत! वहां एकत्र हुए उन समस्त राजाओं की मण्डली में शांतनुनंदन भीष्म ने दुर्योधन से यह बात कह - एक समय की बात है, बृहस्पति ओर शुक्राचार्य ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुए। उनके साथ इन्द्रसहित मरूद्रण, अग्नि, वसुगण, आदित्य, साध्य, सप्तर्षि, विश्र्वावसु गन्धर्व और श्रेष्ठ अप्सराएं भी वहां मौजूद थीं । ये सब देवता संसार के बड़े-बूढ़े पितामह ब्रह्माजी के पास गये और उन्हें प्रणाम करने के पश्र्चात् उन लोकेश्र्वर को सब ओर से घेरकर बैठ गये । इसी समय पुरातन देवता नर-नारायण ॠषि उधर आ निकले ओर अपनी कांति तथा ओज से उन सबके चित्त और तेज का अपहरण-सा करते हुए उस स्थान को लांघकर चले गये । यह देख बृहस्पतिजी ने ब्रह्माजी से पूछा-‘पितामह! ये दोनों कौन हैं; जिन्होंने आपका अभिनंदन भी नहीं किया। हमें इनका परिचय दीजिये’। ब्रह्माजी बोले- बृहस्पते! ये जो दोनों महान् शक्तिशाली तपस्वी पृथ्वी और आकाश को प्राकाशित करते हुए हम लोगों का अतिक्रमण करके आगे बढ़ गये हैं, नर और नारायण हैं। ये अपने तेज से प्रज्वलित और कान्ति से प्रकाशित हो रहे हैं। इनका धैर्य और पराक्रम महान् है। ये अपनी तपस्या से अत्यन्त प्रभावशाली होने के कारण भूलोक से ब्रह्मलोक में आये हैं । इन्होंने अपने सत्कर्मों से निश्र्चय ही सम्पूर्ण लोकों का आनन्द बढा़या है। ब्रह्मन्! ये दोनों अत्यन्त बुद्धिमान् और शत्रओं को संताप देने वाले हैं। इन्होंने एक होते हुए भी असुरों का विनाश करने के लिये दो शरीर धारण किये हैं। देवता और गन्धर्व सभी इनकी पूजा करते हैं । वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ब्रह्माजी की यह बात सुनकर इन्द्र बृहस्पति आदि सब देवताओं के साथ उस स्थान पर गये जहां उन दोनों ॠषियों ने तपस्या की थी । उन दिनों देवासुर-संग्राम उपस्थित था और उसमें देवताओं को महान् भय प्राप्त हूआ था; अत: उन्होंने उन दोनों महात्मा नर-नारायण से वरदान मांगा । भरतश्रेष्ठ! देवताओं की प्रार्थना सुनकर उस समय उन दोनों ॠषियों ने इन्द्र से कहा- ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर मांगो।’ तब इन्द्र ने उनसे कहा- ‘भगवन्! आप हमारी सहायता करें’ । तब नर-नारायण ॠषियों ने इन्द्र ने कहा- ‘देवराज! तुम जो कुछ चाहते हो, वह हम करेंगे।’ फिर उन दोनों के साथ लेकर इन्द्र ने समस्त दैत्यों और दानवों पर विजय पायी । एक समय शत्रुओं को संताप देने वाले नरस्वरूप अर्जुन ने युद्ध में इन्द्र से शत्रुता रखने वाले सैकड़ों और हजारों पौलोम एवं कालखञ्च नामक दानवों का संहार किया । उस समय ये नरस्वरूप अर्जुन सब ओर चक्कर लगाने वाले रथ पर बैठे हुए थे, तो भी इन्होंने सबको अपना ग्रास बनाने वाले जम्भ नामक असुर का मस्तक अपने एक भल्लसे काट गिराया । इन्होंने ही संग्राम में साठ हजार निवातकवचों को पराजित करके समुद्र के उस पार बसे हुए दैत्यों के हिरण्यपुर नामक नगर को तहस-नहस कर डाला ।
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