महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 49 श्लोक 17-32
एकोनपञ्चाशत्तम (49) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
शत्रुओं के नगर पर विजय पाने वाले इन महाबाहु अर्जुन ने खाण्डवदाह के समय इन्द्रसहित समस्त देवताओं को जीतकर अग्निदेव को पूर्णत: तृप्त किया था । इसी प्रकार नारायण स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण ने भी खाण्डवदाह के समय दूसरे बहुत से हिंसक प्राणियों को यमलोक पहुंचाया था। इस प्रकार ये दोनों महान् पराक्रमी हैं। दूर्योधन! इस समय ये दोनों एक-दूसरे से मिल गये हैं, इस बात को तुम लोग अच्छी तरह देख और समझ लो । परस्पर मिले हुए महारथी वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन पुरातन देवतानर और नारायण ही हैं; यह बात विख्यात है । इस मनुष्य लोक में इन्हें इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी नहीं जीत सकते। ये श्रीकृष्ण नारायण हैं और अर्जुन नर माने गये हैं। नारायण और नर दोनों एक ही सत्ता हैं। परंतु लोकहित के लिये दो शरीर धारण करके प्रकट हुए हैं । ये दोनों अपने सत्कर्म के प्रभाव से अक्षय एवं ध्रूवलोकों की व्याप्त करके स्थित हैं। लोकहित के लिये जब-जब जहां-जहां युद्ध का अवसर आता हैं, तब-तब वहां-वहां ये बार-बार अवतार ग्रहण करते हैं । दुष्टों का दमन करके साधु पुरूषों एवं धर्म का संरक्षण ही इनका कर्तव्य है ये सारी बातें वेदों के ज्ञाता नारदजी ने समस्त वृष्णिवंशियों के सम्मुख कही थी । वत्य दुर्योधन! जब तुम देखोगे कि दोनों सनातन महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन एक ही रथ पर बैठे हैं, श्रीकृष्ण के हाथ में शंड्ख, चक्र और गदा है और भयंकर धनुष धारण करने वाले अर्जुन निरन्तर नाना प्रकार के अस्त्र लेते और छोड़ते जा रहे हैं, तब तुम्हें मेरी बातें याद आयेगी । यदि तुमने मेरी बात नहीं मानी तो समझ लो, कौरवों का विनाश अवश्य ही उपस्थित हो जायगा। तात! तुम्हारी बुद्धि अर्थ और धर्म दोनों से भ्रष्ट हो गयी हैं । यदि मेरा कहना नहीं मानेगी तो एक दिन सुनोगे कि हमारे बहुत-से सगे-सम्बन्धी मार डाले गये; क्योंकि सब कौरव तुम्हारे ही मत का अनुसरण करते हैं । भरतश्रेष्ठ! एक तुम्हीं ऐसे हो, जो कि परशुरामजी के द्वारा अभिशप्त खोटी जाति वाले सूतपुत्र कर्ण एवं सुबलपुत्र शकुनि तथा अपने नीच एवं पापात्मा भाई दु:शासन- इन तीनों के मत का अनुमोदन एवं अनुसरण करते हो । कर्ण बोला- पितामह! आपने मेरे प्रति जिन शब्दों का प्रयोग किया है, वे अनुचित हैं। आप-जैसे वृद्ध पुरूष को ऐसी बातें मुहं से नहीं निकालनी चाहिये। मैं क्षत्रियधर्म में स्थित हूं और अपने धर्म से कभी भ्रष्ट नहीं हुआ हूं । मुझसे कौन-सा ऐसा दुराचार है जिसके कारण आप मेरी निन्दा करते हैं। महाराज धृतराष्ट्र के पुत्रों ने कभी मेरा कोई पापाचार देखा या जाना हो ऐसी बात नहीं हैं। मैंने दुर्योधन का कभी कोई अनिष्ट नहीं किया हैं । मैं युद्धभूमि में खडे़ होने पर समस्त पाण्डवों को अवश्य मार डालूंगा। जो लोग पहले अपने विरोधी रहे हो, उनके साथ पुन: संधि कैसे की जा सकती है? मुझे जिस प्रकार राजा धृतराष्ट्र का समस्त प्रिय कार्य करना चाहिये, उसी प्रकार दुर्योधन का भी करना उचित है; क्योंकि अब वे ही राज्य पर प्रतिष्ठित हैं ।
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