महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 64 श्लोक 1-16

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चतु:षष्टितम (64) अध्याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: चतु:षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

विदुर का कौटुम्बिक कलह से हानि बताते हुए धृतराष्‍ट्र को संधि की सलाह देना

विदुर जी कहते हैं-तात! हमने पूर्वपुरूषों के मुख से सुन रक्‍खा है कि किसी समय एक चिड़ीमार ने चिड़ियों को फंसाने के लिये पृथ्‍वी पर एक जाल फैलाया। उस जाल में दो ऐसे पक्षी फंस गये, जो सदा साथ-साथ उड़ने और विचरने वाले थे। वे दोनों पक्षी उस समय उस जाल को लेकर आकाश में उड़ चले। चिड़ीमार उन दोनों को आकाश में उड़ते देखकर भी खिन्‍न या हताश नहीं हुआ। वे जिधर-जिधर गये, उधर-उधर ही वह उनके पीछे दौड़ता रहा। उन दिनों उस वन कोई मुनि रहते थे, जो उस समय संध्‍या-वंदन आदि नित्‍यकर्म करके आश्रम में ही बैठै हुए थे। उन्‍होंने पक्षियों को पकड़ने के लिये उनका पीछा करते हुए उस व्‍याध को देखा। कुरूनंदन! उन आकाशचारी पक्षियों के पीछे-पीछे भूमि-पर पैदल दोड़नेवाले उस व्‍याध से मुनिने निम्‍नाकिंत श्र्लोक के अनुसार प्रश्‍न किया -। ‘अरे व्‍याध! मुझे यह बात बड़ी विचित्र और आश्र्चर्य-जनक जान पड़ती है कि तू आकाश में उड़ते हुए इन दोनों पक्षियों के पीछे पृथ्‍वीपर पैदल दोड़ रहा है’। व्‍याध बोला-मुने! ये दोनों पक्षी आपस में मिलगये है, अत: मेरे एकमात्र जाल को लिये जा रहे हैं। अब ये जहां-कहीं एक दूसरे से झगड़ेंगे, वही मेरे वश में आ जायंगे।

विदुरजी कहते हैं-राजन्! तदनंदन कुछ ही देर में काल के वशीभूत हुए वे दोनों दुर्बुद्धि पक्षी आपस में झगड़ने लगे और लड़ते-लड़ते पृथ्‍वी पर गिर पड़े। जब मौत के फंदे में फंसे हुए वे पक्षी अत्‍यंत कुपित होकर एक दुसरे से लड़ रहे थे, उसी समय व्‍याध ने चुपचाप उनके पास आकर उन दोनों को पकड़ लिया। इसी प्रकार जो कुटम्‍बीजन धन-सम्‍पत्ति के लिये आपस में कलह करते हैं, वे युद्ध करके उन्‍हीं दोनों पक्षियों की भांति शत्रुओं के वश में पड़ जाते हैं। साथ बैठकर भोजन करना, आपस में प्रेम से वार्तालाप करना, एक दूसरे के सुख-दु:ख को पूछना और सदा मिलते-जुलते रहना-ये ही भाई-बंधुओं के काम हैं, परस्‍पर विरोध करना कदापि उचित नहीं है। जो शुद्ध हृदय वाले मनुष्‍य समय-समय पर बड़े-बूढो़ं की सेवा एवं सङ्ग करते रहते हैं, वे सिंह से सुरक्षित वन के समान दूसरों के लिये दुर्धर्ष हो जाते हैं (शत्रु उनके पास आने का साहस नहीं करते हैं)। भरतश्रेष्‍ठ! जो धन को पाकर भी सदा दीनों के समान तृष्‍णा से पीड़ित रहते हैं, वे (आपस में कलह करके) अपनी सम्‍पत्ति शत्रुओं दे डालते हैं। भरतकुलभूषण धृतराष्‍ट्र! जैसे जलते हुए काष्‍ठ अलग-अलग कर दिये जाने पर जल नहीं पाते, केवल धआं देते हैं और परस्‍पर मिल जाने पर प्रज्‍वलित हो उठते हैं, उसी प्रकार कुटम्‍बीजन आपसी फूट के कारण अलग-अलग रहने पर अशक्‍त हो जाते हैं तथा परस्‍पर संगठीत होने पर बलवान् एवं तेजस्‍वी होते हैं। कौरवनंदन! पूर्वकाल में किसी पर्वतपर मैंने जैसा देखा था, उसके अनुसार यह एक दूसरी बात बता रहा हूं। इसे भी सुनकर आपको जिसमें अपनी भलाई जान पड़े, वही कीजिये। एक समय की बात है, हम बहुत-से भीलों और देवोपम ब्राह्मणों के साथ उत्‍तर दिशा में गन्‍धमादन पर्वतपर गये थे। हमारे साथ जो ब्राह्मण थे, उन्‍हें मन्‍त्र-यन्‍त्रादिरूप विद्या और औषधियों के साधन आदि की बातें बहुत प्रिय थीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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