महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 12-27
द्विसप्ततितम (72) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
जनार्दन! उनका लोभ इतना बढ़ गया है कि वे दुर्योधन की ही हां-में-हां मिलाते हैं और अपना ही प्रिय कार्य करते हूए हमारे साथ मिथ्या व्यवहार कर रहे हैं। जनार्दन! इससे बढ़कर महान् दु:ख की बात ओर क्या हो सकती है कि मैं अपनी माता तथा मित्रों का भी अच्छी तरह भरण-पोषण तक नहीं कर सकता। मधुसूदन! यद्यपि काशी, चेदि, पाञ्चाल और मत्स्यदेश के वीर हमारे सहायक हैं और आप हम लोगों के रक्षक और स्वामी हैं; (आप लोगों की सहायता से हम सारा राज्य ले सकते हैं) तथापि मैंने केवल पांच ही गांव मांगे थे। गोविन्द! मैंने धृतराष्ट्र से यही कहा था कि तात! आप हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और अन्तिम पांचवां कोई-सा भी गांव जिसे आप देना चाहें, दे दें। इस प्रकार हमारे लिये पांच गांव या नगर दे दें; जिनमें हम पांचों भाई एक साथ मिलकर रह सकें और हमारे कारण भरतवंशियों का नाश न हो। परंतु दुष्टात्मा दुर्योधन सब पर अपना ही अधिकार मानकर उन पांच गांवों को भी देने की बात नहीं स्वीकार कर रहा हैं। इससे बढ़कर कष्ट की बात और क्या हो सकती हैं? मनुष्य उत्तम कुल में जन्म लेकर और वृद्ध होने पर भी यदि दूसरों के धन को लेना चाहता है तो वह लोभ उसकी विचार शक्ति को नष्ट कर देता है। विचार शक्ति नष्ट होने पर उसकी लज्जा को भी नष्ट कर देती है। नष्ट हुई लज्जा धर्म को नष्ट कर देती है। नष्ट हुआं धर्म मनुष्य की सम्पत्ति का नाश कर देता है और नष्ट हुई सम्पत्ति उस मनुष्य का विनाश कर देती है, क्योंकि धन का अभाव ही मनुष्य का वध है। श्रीकृष्ण! धनहीन पुरूष से उसके भाई-बन्धु, सुहृद् और ब्राह्मण लोग भी उसी प्रकार मुंह मोड़ लेते हैं, जैसे पक्षी पुष्प और फल से हीन वृक्ष को छोड़कर उड़ जाते हैं। तात! जैसे पतित मनुष्य के निकट से लोग दूर भागते हैं और जैसे मृत शरीर से प्राण निकल जाते हैं, उसी प्रकार मेरे कुटुम्बीजन भी जो मुझसे मुंह मोंड़ रहे हैं, यही मेरे लिये मरण है। जहां आज और कल सबेरे के लिये भोजन नहीं दिखायी देता, उस दरिद्रता से बढ़कर दूसरी कोई दु:खदायिनी अवस्था नहीं हैं; यह शम्बर का कथन हैं। धन को उत्तम धर्म का साधक बताया गया है। धन में सब कुछ प्रतिष्ठित है। संसार में धनी मनुष्य ही जीवन धारण करते हैं। जो निर्धन हैं, वे तो मरे हुए के ही समान हैं। जो लोग अपने बल में स्थित होकर किसी मनुष्य को धन से वञ्चित कर देते हैं, वे उसके धर्म, अर्थ और काम को तो नष्ट करते ही हैं, उस मनुष्य को भी नष्ट कर देते हैं। इस निर्धन अवस्था को पाकर कितने ही मनुष्यों ने मृत्यु-का वरण किया हैं। कुछ लोग गांव छोड़कर दूसरे गांव में जा बसे हैं, कितने ही जंगलों में चले गये हैं और कितने ही मनुष्य प्राण देने के लिये घर से निकल पडे़ हैं। कितने लोग पागल हो जाते हैं, बहुत-से शत्रुओं के वश में पड़ जाते हैं और कितने ही मनुष्य धन के लिये दूसरों की दासता स्वीकार कर लेते हैं। धन-सम्पत्ति का नाश मनुष्य के लिये भारी विपत्ति ही है। वह मृत्यु से भी बढ़कर हैं, क्योंकि सम्पत्ति ही मनुष्य के धर्म और काम की सिद्धि का कारण है।।
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