महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 28-43

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द्विसप्ततितम (72) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: द्विसप्ततितम अध्याय: श्लोक 28-43 का हिन्दी अनुवाद

मनुष्‍य की जो धर्मानुकूल मृत्यु है, वह परलोक के लिये सनातन मार्ग है। सम्पूर्ण प्राणियों में से कोई भी उस मृत्यु का सब ओर से उल्लघंन नहीं कर सकता। श्रीकृष्‍ण! जो जन्म से ही निर्धन रहा है, उसे उस दरिद्रता के कारण उतना कष्‍ट नहीं पहुंचता, जितना कि कल्याणमयी सम्पत्ति को पाकर सुख में ही पले हुए पुरूष को उस सम्पत्ति से वञ्चित होने पर होता है। यद्यपि वह मनुष्‍य उस समय अपने ही अपराध से भारी संकट में पड़ता है, तथापि वह इसके लिये इन्द्र आदि देवताओं की ही निन्दा करता है; अपने को किसी प्रकार भी दोष नहीं देता है। उस समय सम्पूर्ण शास्त्र भी उसके इस संकट को टालने-में समर्थ नहीं होते। वह सेवकों पर कुपित होता और सगे-सम्बन्धियों के दोष देखने लगता है। निर्धन अवस्था में मनुष्‍य को केवल क्रोध आता है, जिससे वह पुन: मोहाच्छत्र हो जाता- विवेकशील खो बैठता है। मोह के वशीभूत होकर वह क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगता हैं। इस प्रकार पापकर्मों में प्रवृत्त होने के कारण वह वर्णसकर संतानों का पोषक होता हैं और वर्णसंकर केवल नरक की ही प्राप्ति कराता है। पापियों की यही अन्तिम गति है। श्रीकृष्‍ण! यदि उसे फिर से कर्तव्य का बोध नहीं होता, तो वह नरक की दिशा में ही बढ़़ता जाता है। कर्तव्य का बोध कराने वाली प्रज्ञा ही है। जिसे प्रज्ञारूपी नेत्र प्राप्त है, वह निश्‍चय ही संकट से पार हो जायगा।
प्रज्ञा की प्राप्ति होने पर पुरूष केवल शास्त्र वचनों पर ही दृष्टि रखता है। शास्त्र में निष्‍ठा होने पर वह पुन: धर्म करता है। धर्म का उत्तम अङ्ग है लज्जा, जो धर्म के साथ ही आ जाती है। लज्जाशील मनुष्‍य पाप से द्वेष रखकर उससे दूर हो जाता है। अत: उसकी धन सम्पत्ति बढने लगती है। जो जितना ही श्रीसम्पन्न है, वह उतना ही पुरूष माना जाता है। सदा धर्म में तत्पर रहने वाला पुरूष शान्तचित्त होकर नित्य-निरन्तर सत्कर्मों में लगा रहता है। वह कभी अधर्म में मन ही लगाता और न पाप में ही प्रवृत्त होता है। जो निर्लज्ज अथवा मूर्ख है, वह न तो स्त्री है और न पुरूष ही है। उसका धर्म-कर्म में अधिकार नहीं है। वह शुद्र के समान है। लज्जाशील पुरूष देवताओं की, पितरों की तथा अपनी भी रक्षा करता है। इससे वह अमृतत्व को प्राप्त होता है। वही पुण्‍यात्मा पुरूषों की परत गति है। मधुसूदन! यह सब आपने मुझमें प्रत्यक्ष देखा है कि मैं किस प्रकार राज्य से भ्रष्‍ट हुआ और कितने कष्‍ट के साथ इस दिनों रह रहा हूं। अत: हम लोग किसी भी न्याय से अपनी पैतृक सम्पत्ति-का परित्याग करने योग्य नहीं है। इसके लिये प्रयत्न करते हुए यदि हम लोगों का वध हो जाय तो वह भी अच्छा ही है। माधव! इस विषय में हमारा पहला ध्‍येय यही है कि हम और कौरव आपस में संधि करके शान्तभाव से रहकर उस सम्पत्ति का समानरूप से उपभोग करें। दूसरा पक्ष यह है कि हम कौरवों को मारकर सारा राज्य अपने अधिकार में कर लें; परंतु यह भयंकर क्रूरतापूर्ण कर्म की पराकाष्‍ठा होगी (क्योंकि इस दशा में कितने ही निरपराध मनुष्‍यों का संहार करने के पश्‍चात् हमारी विजय होगी)।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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