महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 72 श्लोक 44-57
द्विसप्ततितम (72) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
श्रीकृष्ण! जिनका अपने साथ कोई सम्बन्ध न हो तथा जो सर्वथा नीच एवं शत्रुभाव रखने वाले हों, उनका भी वध करना उचित नहीं है। फिर जो सगे-सम्बन्धी, श्रेष्ठ और सुहृद् हैं, ऐसे लोगों का वध कैसे उचित हो सकता है? हमारे विरोधियों में अधिकांश हमारे भाई-बन्धु, सहायक और गुरूजन हैं। उनका वध तो बहुत बड़ा पाप है। युद्ध में अच्छी बात क्या है? (कुछ नहीं)। क्षत्रियों का यह (युद्ध रूप) धर्म पापरूप ही है। हम भी क्षत्रिय ही हैं, अत: वह हमारा स्वधर्म पाप होने पर भी हमें तो करना ही होगा, क्योंकि उसे छोड़कर दूसरी किसी वृत्ति को अपनाना भी निन्दा की बात होगी। शूद्र सेवा का कार्य करता है, वैश्य व्यापार से जीविका चलाते हैं, हम क्षत्रिय युद्ध में दूसरों का वध करके जीवन-निर्वाह करते हैं और ब्राह्मणों ने अपनी जीविका के लिये भिक्षापात्र चुन लिया है। क्षत्रिय क्षत्रिय को मारता है, मछली मछली को खाकरजीती है और कुत्ता कुत्ते को काटता है। दशार्हनन्दन! देखिये; यही परम्परा से चला आने वाला धर्म है। श्रीकृष्ण! युद्ध में सदा कलह ही होता हैं और उसी के कारण प्राणों का नाश होता है। मैं तो नीतिबल का ही आश्रय लेकर युद्ध करूंगा। फिर ईश्वर की इच्छा के अनुसार जय हो या पराजय। प्राणियों के जीवन और मरण अपनी इच्छा के अनुसार नहीं होते हैं (यही दशा जय और पराजय की भी है) यदुश्रेष्ठ! किसी को सुख अथवा दु:ख की प्राप्ति भी असमय में नहीं होती है। युद्ध में एक योद्धा भी बहुत-से सैनिकों का संहार कर डालता है तथा बहुत-से योद्धा मिलकर भी किसी एक को ही मार पाते है। कभी कायर शूरवीर को मार देता है और अयशस्वी पुरूष यशस्वी वीर को पराजित कर देता है। न तो कहीं दोनों पक्षों की विजय होती देखी गयी है और न दोनों का पराजय ही दृष्टिगोचर हुई है। हां, दोनों के धन-वैभव का नाश अवश्य देखा गया है। यदि कोई पक्ष पीठ दिखाकर भाग जाय, तो उसे भी धन और जन दोनों की हानि उठानी पड़ती है। इससे सिद्ध होता है कि युद्ध सर्वथा पापरूप ही है। दूसरों को मारने वाला कौन ऐसा पुरूष है, जो बदले में स्वयं भी मारा न जाता हो? हृषीकेश! जो युद्ध में मारा गया, उसके लिये तो विजय और पराजय दोनों समान है। श्रीकृष्ण! मैं तो ऐसा मानता हुं कि पराजय मृत्यु से अच्छी वस्तु नहीं हैं। जिसकी विजय होती है, उसे भी निश्चय ही धन-जन की भारी हानि उठानी पड़ती है। युद्ध समाप्त होने तक कितने ही विपक्षी सैनिक विजयी योद्धा के अनेक प्रियजनों को मार डालते है। जो विजय पाता है, वह भी (कुटुम्ब और धन सम्बन्धी) बल से शून्य हो जाता है। और कृष्ण! जब वह युद्ध में मारे गये अपने पुत्रों और भाइयों को नहीं देखता है, तो वह सब ओर से विरक्त हो जाता है; उसे अपने जीवन से भी वैराग्य हो जाता है। जो लोग धीर-वीर, लज्जाशील, श्रेष्ठ और दयालु हैं, वे ही प्राय: युद्ध में मारे जाते है और अधम श्रेणी के मनुष्य जीवित बच जाते है। जनार्दन! शत्रुओं को मारने पर भी उनके लिये सदा मन में पश्चात्ताप बना रहता है।
« पीछे | आगे » |