महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 90 श्लोक 73-90
नवतितम (90) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
'माधव ! तुम धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर से कहना- 'बेटा ! तुम्हारे धर्म की बड़ी हानी हो रही है । तुम उसे व्यर्थ नष्ट न करो। 'वासुदेव ! जो स्त्री दूसरों के आश्रित होकर जीवन-निर्वाह करती है, उसे धिक्कार है । दीनता से प्राप्त हुई जीविका की अपेक्षा तो मर जाना ही उत्तम है। 'श्रीकृष्ण ! तुम अर्जुन तथा युद्ध के लिए सदा उदयत्त रहनेवाले भीमसेन से कहना कि क्षत्राणी जिस प्रयोजन के लिए पुत्र उत्पन्न करती है, उसे पूरा करने का यह समय आ गया है। 'यदि ऐसा समय आने पर भी तुम युद्ध नहीं करोगे तो यह व्यर्थ बीत जाएगा । तुम लोग इस जगत के सम्मानित पुरुष हो । यदि तुम कोई अत्यंत घृणित कर्म कर डालोगे तो उस नृशंस कर्म से युक्त होने के कारण मैं तुम्हें सदा के लिए त्याग दूँगी । पुत्रो ! तुम्हें तो समय आने पर अपने प्राणों को त्याग देने के लिए उद्यत रहना चाहिए । 'गोविंद ! तुम सदा क्षत्रिय धर्म में तत्पर राहें वाले मादरीनंदन नकुल-सहदेव से भी कहना- 'पुत्रों ! तुम प्राणों की बाजी लगाकर भी पराक्रम से प्राप्त किए हुए भोगों को ही ग्रहण करना'। 'पुरुषोत्तम ! क्षत्रिय धर्म से जीवन निर्वाह करनेवाले मनुष्य के मन को पराक्रम से प्राप्त हुआ धन ही सदा संतुष्ट रखता है। 'महाबहो ! तुम पांडवों के पास जाकर सम्पूर्ण शस्त्र-धारियों में श्रेष्ठ पांडुनंदन वीर अर्जुन से कहना कि तुम द्रौपदी के बताए हुए मार्ग पर चलो। 'श्रीकृष्ण ! तुम तो जानते ही हो; यदि भीमसेन और अर्जुन अत्यंत कुपित हो जाएँ तो वे यमराज के समान होकर देवताओं को भी मृत्यु के मुख में पहुंचा सकते हैं । 'द्रौपदी को जो सभा में उपस्थित होना पड़ा तथा दु:शासन और कर्ण ने जो उसके प्रति कठोर बातें कहीं, यह सब भीमसेन और अर्जुन का ही अपमान है । दुर्योधन ने प्रधान-प्रधान कौरवों के सामने मनस्वी भीमसेन का अपमान किया है । इसका जो फल मिलेगा, उसे वह देखेगा। 'भीमसेन वैर हो जाने पर कभी शांत नहीं होता । भीमसेन का वैर तब तक दीर्घकाल के बाद भी समाप्त नहीं होता है, जब तक वह शत्रुओं का संहार नहीं कर डालता। 'राज्य छिन गया, यह कोई दुःख का कारण नहीं है । जुए में हार जाना भी दुःख का कारण नहीं है । मेरे पुत्रों को वन में भेज दिया, इससे भी मुझे दुःख नहीं हुआ है; परंतु मेरी श्रेष्ठ सुंदरी वधू को एक वस्त्र धारण किए जो सभा में जाना पड़ा और दुष्टों की कठोर बातें सुननी पड़ीं, इससे बढ़कर महान् दुःख की बात और क्या हो सकती है ? 'सदा क्षत्रियधर्म में अनुराग रखने वाली मेरी सर्वांग-सुंदरी बहू कृष्णा उस समय रजस्वला थी । वह सनाथ होती हुई भी वहाँ किसी को अपना नाथ (रक्षक) न पा सकी। 'पुरुषोत्तम ! मधुसूदन ! पुत्रों सहित जिस कुंती के बलवानों में श्रेष्ठ बलराम, महारथी प्रद्युमन तथा तुम रक्षक हो, युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले विजयी अर्जुन और दुर्धष भीमसेन- सरीखे जिसके पुत्र जीवित हैं, वही मैं ऐसे-ऐसे दुःख सह रही हूँ'। वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमजेय ! तदनंतर अर्जुन के मित्र भगवान श्रीकृष्ण ने पुत्रों की चिंताओं में डूबकर शोक करती हुई अपनी बुआ कुंती को इस प्रकार आश्वासन दिया।
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