महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 95 श्लोक 54-63
पञ्चनवतितम (95) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
भरतश्रेष्ठ ! शांत हो जाइए, क्रोध के वशीभूत न होइये । परंतप ! पांडवों को यथोचित्त पैतृक राज्यभाग देकर अपने पुत्रों के साथ सफल मनोरथ हो मनोवांछित भोग भोगिये। नरेश्वर ! आप जानते हैं कि अजातशत्रु युधिष्ठिर सदा सत्पुरुषों के धर्म पर स्थित हैं । उनका पुत्रों सहित आपके प्रति जो बर्ताव है, उससे भी आप अपरिचित नहीं हैं । आप लोगों ने उन्हें लाक्षागृह की आग में जलवाया तथा राज्य और देश से निकाल दिया; तो भी वे पुन: आपकी ही शरण में आए हैं। पुत्रों सहित आपने ही युधिष्ठिर को यहाँ से निकालकर इंद्रप्रस्थ का निवासी बनाया । वहाँ रहकर उन्होनें समस्त राजाओं को अपने वश में किया और उन्हें आपका मुखापेक्षी बना दिया । राजन् ! तो भी युधिष्ठिर ने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। ऐसे साधु बर्ताव वाले युधिष्ठिर के राज्य तथा धन-धान्य का अपहरण कर लेने की इच्छा से सुबलपुत्र शकुनि ने जुए के बहाने अपना महान् कपटजाल फैलाया। उस दयनीय अवस्था में पहुँचकर अपनी महारानी कृष्णा को सभा में (तिरस्कारपूर्वक) लायी गयी देखकर भी महामना युधिष्ठिर अपने क्षत्रिय धर्म से विचलित नहीं हुए। भारत ! मैं तो आपका और पांडवों का भी कल्याण ही चाहता हूँ । राजन् ! आप समस्त प्रजा को धर्म, अर्थ और सुख से वंचित न कीजिये । इस समय आप अनर्थ को ही अर्थ और अर्थ को ही अपने लिए अनर्थ मान रहे हैं। प्रजानाथ ! आपके पुत्र लोभ में अत्यंत आसक्त हो गए हैं, उन्हें काबू में लाइये । राजन् ! शत्रुओं का दमन करनेवाले कुंती के पुत्र आपकी सेवा के लिए भी तैयार हैं और युद्ध के लिए भी प्रस्तुत हैं । परंतप ! जो आपके लिए विशेष हितकर जान पड़े, उसी मार्ग का अवलंबन कीजिये। वैशम्पायन जी कहते हैं – जनमजेय ! भगवान श्रीकृष्ण के उस कथन का समस्त राजाओं ने हृदय से आदर किया । वहाँ उसके उत्तर में कोई भी कुछ कहने के लिए अग्रसर न हो सका।
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